SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिरसठवां समवाय तेंवट्ठिमो समवायो १. उसमे णं अरहा कोसलिए तेसर्टि पुव्वसयसहस्साई महारायवासमज्भावसित्ता मुंडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पच्वइए । १. अर्हत् कौशलिक ने ऋषभ तिरसठ शत-सहस्र/लाख पूर्वो तक महाराज के रूप में गृहवास में रहकर मुड होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। २. हरिवासरम्मयवासेसु मणुस्सा तेवहिए राइंदिएहि संपत्तजोवणा भवंति। ३. निसहे णं पदवए तेवढि सूरोदया पण्णत्ता। २. हरिवर्ष एवं रम्यकवर्ष के मनुष्य तिरसठ रात-दिन में यौवन-दशा को प्राप्त होते हैं। ३. निषघ पर्वत पर तिरसठ सूर्योदय प्रज्ञप्त हैं। ४. इसी प्रकार नीलवंत पर भी [ ज्ञातव्य है ।] ४. एवं नीलवतेवि। समवाय-सुत्तं १५९ समवाय-६३
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy