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________________ चोत्तीसइमो समवाओ १. चोत्तोस बुद्धाइसेसा पण्णत्ता, तं जहा १. श्रवट्टिए केसमंसुरोमनहे । २. निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी । ३. गोक्खीरपंडुरे मंमसोगिए । ४. पउमुप्पलगंधिए उस्तातनित्सा | ५. पच्छन्ने आहारनोहारे, श्रद्दिस्ते मंतचक्खुरणा । ६. आगासगयं चक्कं । ७. आगातयं छत्तं । 5. आगासियाओ सेयवरचामराम्रो । 8. श्रागासफालियामयं सपायपीढं सोहासरणं । १०. आगातगस्रो कुडनीतहस्सपरिमंडिनाभिरामो इंदभन्नो पुरनो गच्छइ । समवाय-नुतं १२४ चौतीसवां समवाय १. बुद्ध / तीर्थकर के अतिशेष /अतिशय चौतीम प्रज्ञप्त हैं, जैसे कि - १. केश, श्मश्रु / दाड़ी मूछ, रोम, नत्र अवस्थित रहते हैं । २. निरामय / रोगरहित और निरुपलेप / मल- स्वेद रहित शरीर होता है । - ३. मांस और शोणित / रक्त दूध के समान पाण्डुर / श्वेत होता है । ४. पद्मकमल की तरह सुगन्वित उच्छ् वास निःश्वास होते हैं । ५. आहार और नीहार प्रच्छन्न होते हैं, मांस-चक्षु द्वारा अदृश्य रहते हैं " आकाशगत [ धर्म ] चक्र चलता है । ७. आकाशगत छत्र होता है । 5. ग्राकाश में श्रेष्ठ श्वेत चामर दुलते हैं । ९. आकाशवत्, स्फटिकमय पादपीठ सहित सिंहासन होता है । १०. आगे-आगे आकाश में हजारों लघुपताकाओं से अभिमण्डित सुन्दर इन्द्रध्वज चलता है । समवाय-३४
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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