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________________ चारों अनुयोगों की पद्धति अब यह समझना है कि जैन शास्त्रों का अभ्यास करने की पंडितजी साहब क्या पद्धति वतलाते हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार नं. ८ में पंडितजी साहब ने इस विषय को बहुत स्पष्टीकरण पूर्वक समझाया है कि चारों अनुयोग के शास्त्रों में कथन किस पद्धति से, किस प्रयोजन को लेकर, किस विधि से किया गया है तथा उनमें दोष कल्पना की जाती है, उसका निराकरण क्या है ? अतः पूरा अधिकार ही मनन करने योग्य है । उसके कुछ अंश यहां . दिये जाते हैं। प्रथमानुयोग के कथन की पद्धति प्रथमानुयोग के संबंध में पत्र नं. २६८ में "प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य पाप का फल, महंत पुरुपों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है" पत्र नं. २६६ में "परन्तु प्रयोजन जहां तहां पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का प्रगट करते हैं" "प्रथम अर्थात् अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि, उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है" पक्ष नं. २७३ में "उपदेश में कहीं व्यवहार वर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है। यहां उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, इस प्रकार इसे प्रमाण करते हैं।" ____ आगे कहा है-"प्रथमानुयोग में उपचाररूप किसी धर्म का अंग होने पर सम्पूर्ण धर्म हुआ कह देते हैं सम्यक्त्व तो तत्वश्रद्धान होने पर ही होता है, परन्तु निश्चयसम्यक्त्व का तो व्यवहार
SR No.010826
Book TitleShastro ke Arth Samazne ki Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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