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________________ ( २४ ) .. "श्रुत केवलज्ञान " 'पर्यव अक्षर को समझना चाहिये क्योंकि अभिधेय ( कहने योग्य ) वस्तु धर्म स्वपर्याय है और अनभिधेय ( नहीं कहने योग्य.) वस्तुधर्म परपर्याय है।... .. केवल ज्ञानी को अभिधेय और अनभिधेय दोनों ही स्वपर्याय है इस प्रकार श्रुतकेवलज्ञान और केवलज्ञान इस प्रकार जो दोनों ही ज्ञान के पर्यायं समान हों उसको, पर्यव अक्षर . : * उत्कृष्ट से उस (केवलज्ञान) का अनंतवां भाग श्रुतं केवली को मालुम होता है। .... .. ". जघन्य से निगोद के जीव की संज्ञा आदि चेतना रूप ज्ञान का भान रहता है। ...... ::::::::: '':* जो पदार्थ केवलज्ञानी श्रुतं ज्ञान से कह सके वह अभिधेय है और जो नहीं कही जा सके वह अनभिधेय है. अभिधेयं को चौदह पूर्वधारी श्रुत . केवल ज्ञानी सम्पूर्ण जान सकता है यानि अभिधेय. दोनों केवली में समान है. उसे ही पर्यव,असर कहते हैं किन्तु केवलज्ञानी' को अनभिधेय का भी ज्ञान: है परन्तु उसको नहीं कहे जा सकने के कारण श्रुत केवलज्ञानी नहीं जानते इसी कारण श्रुत केवली के लिये अनभिधय ज्ञान पर पर्याय है और अभिधेय स्वपर्याय है, केनलज्ञानी के लिये तो दोनों ही स्वपर्याय है।.. * उत्कृष्ट श्रुतज्ञान श्रुत कैवली का कहते हैं और वह केवल ज्ञानका अनन्तवां भांग हैं, जघन्यश्रृंत ज्ञान निगोद जीवको होता है क्योंकि उसे भी संज्ञा चेतनादि श्रुतज्ञान के लक्षण है।
SR No.010822
Book TitleKarm Vipak Pratham Karmgranth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages131
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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