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________________ ( ५ ). मूल कर्मों की आठ प्रकृतियां । " १ - ज्ञानावरणीय कर्म - जिस कर्म के उदय से स्वयं आत्मा का वा अन्य वस्तुओं का अनुभव अर्थात् ज्ञान होने में जो आवरण अर्थात् रोक वा विघ्न आते हैं उस कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं इसके ५ भेद हैं । २ - दर्शनावरणीय कर्म - जिस कर्म के उदय से स्वयं आत्मा वा अन्य वस्तुओं को देखने में जो रोक वा विघ्न आते हैं उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं इसके भेद हैं । 2 " . ३ - वेदनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से सुख और दुख आत्मा को मिलते हैं उसको वेदनीय कर्म कहते हैं इसके २ भेद हैं। ४ मोहनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा पुद्गलादि से भिन्न (चेतन) होने पर भी जड़ पुद्गलों पर, सांसारिक सम्बंधियों पर ममत्व करता है किसी पर राग करता है किसी पर द्वेष करता हैं उस कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं इसके २८ भेद हैं। :: ५ आयुकर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा को शरीर रूपी बंधन में रहना पड़ता है उसको आयु कर्म कहते है इसके ४' - भेद हैं । १ ६ नामकर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा नवीन नवीन' प्रकार के स्वरूप ग्रहण करता है उसको नामकर्म कहते हैं. इस के १०३ . भेद हैं ।
SR No.010822
Book TitleKarm Vipak Pratham Karmgranth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages131
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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