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" वहता पानी निर्मला, खड़ा गंधीला होय ।
"साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥" याने गंगादिका वहता प्रवाह जैसे स्वच्छ रहता है. ऐसेही, रमते अर्थात् देशदेशमे विचरते साधु निर्मल रहते हैं. उनको कोई प्रकारका दागभी नहीं लग सकता. परंतु जैसे छपडी (खावोचिया का खड़ा पानी गंदा हो जाता है. वैसे ही, एकके एकही स्थानमें रहनेवाले साधुको दोष लगनेका संभव होता है. अतः साधुको एक स्थानमें रहना योग्य नहीं इत्यादि. अंतमें सर्वकी संम्मतिसे यह नियमभी पास किया गया.
प्रस्ताव तीसरा.
(३) अपने समुदायके मुनियोंको एकल विहारी नहीं होना चाहिये, अर्थात् दो साधुसे कम न रहेना चाहिये. यदि किसी कारणसे एकके ही रहनेका प्रसंग आवे तो श्रीमद् आचार्य महाराजकी आज्ञा ले लेना चाहिये.
यह नियम मुनिराज श्रीवल्लभाविजयजी महाराजने पेश कियाथा. जिसपर मुनि श्रीप्रेमविजयजीने पूर्ण तया पुष्टि दिये वाद सर्वे मुनियोंकी संमति अनुसार यह प्रस्ताव पास किया गया. " इस नियमको प्रस्तावित करते हुए, मुनिराज श्री