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________________ सत्संग. एक स्वभावी होता नथी. तेमां परस्पर स्वार्थबुद्धि अने मायानुं अनुसंधान होय छे अने ज्यां ए वे कारणथी समागमछे त्यां एक स्वभाव के निर्दोषता होतां नथी. निर्दोष अने समस्वभावी समागम तो परस्परथी शांत मुनीश्वरोनो छे तेम ज धर्मध्यान मशस्त अल्पारंभी पुरुपनो पण केटलेक अंशे छे. ज्यां स्वार्थ अने माया कपट ज छे त्यां समस्वभावता नथी; अने ते सत्संग पण नथी. सत्संगथी जे सुख अने आनंद मळे छे ते अति स्तुतिपात्र छे. ज्या शास्त्रोना सुंदर प्रश्नो थाय, ज्यां उत्तम ज्ञान, ध्याननी सुकथा थाय, ज्यां सत्पुरुषोनां चरित्रपर विचार बंधाय, ज्या तत्त्वज्ञानना तरंगनी लहरियो छूटे, ज्यां सरळ स्वभावथी सिद्धांतविचार चर्चाय, ज्यां मोक्षजन्य कथनपर पुष्कळ विवेचन थाय एवो सत्संग ते महा दुर्लभछे. कोइ एम कहे के, सत्संगमंडळमां कोइ मायावि नहि होय ? तो ते समाधान आ छे ज्यां माया अन स्वार्थ होय छे त्यां, सत्संग ज होतो नथी. राजहंसनी सभानो काग देखावे कदापि न कळाय तो अवश्य रागे कळाशे; मौन रहो तो मुखमुद्राए कलाशे. पण ते अंधकारमा जाय नहीं. तेम ज मायावियो सत्संगमा स्वार्थ जइने शुं करे ? त्यां पेट भर्यानी वात तो होय नही वेघडी त्यां जइ ते विश्रांति लेतो होय तो भले ले के, जेथी रंग लागे नहीं तो वीजीवार तेनुं आगमन होय नहीं जेम पृथ्वीपर तराय नहीं, तेम सत्संगथी बूडाय नहीं आवी सत्संगमा चमत्कृति छ. निरंतर एवा निर्दोष समागममा
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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