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________________ ६ श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. अनंत सुखमां विराजमान थाय छे. ए सोक्ष वीजा कोइ देहधी मळतो नयी. देव, तिर्यच के नरक ए एक्के गतिथी मोक्ष नथी; मात्र मानवदेहथी मोक्ष छे. त्यारे तमे कहेशो के, सघळां मानवियोनो मोक्ष केम धतो नथी ? तेनो उत्तरः जेओ मानवपणुं समजे छे, तेओ संसारशोकने तरी जायछे, जेनामां विवेकबुध्धि उदय पामी होय, अने ते वडे सत्यासत्यनो निणर्य समजी, परम तत्त्वज्ञान तथा उत्तम चारित्ररूप सद्धर्मनुं सेवन करी जेओ अनुपम मोक्षने पामे छे, तेना देहधारीपणाने विद्वानो मानवपणुं कहे छे. मनुष्यना शरीरना देखाव उपरथी विद्वानो तेने मनुष्य कहेता नथी; परंतु तेना विवेकने लड़ने कहे छे. वे हाथ, वे पग, वे आंख, वे कान, एक मुख, वे होठ अने एक नाक ए जेने होय तेने मनुष्य कहेवो एम आपणे समजवुं नहीं. जो एम समजीए तो पछी वांदराने पण मनुष्य गणवो जोइए. एणे पण ए प्रमाणे सघळं प्राप्त कयुं छे. विगेषमां एक पूंछहुँ पण छे; त्यारे शुं एने महा मनुष्य कड़ेवो ? ना, नहीं. मानवपणुं समजे ते ज मानव कहेवाय. ज्ञानीओ कहे छे के, ए भव बहु दुर्लभ है; अति पुण्यना प्रभावथी ए देह सांपडे छे; माटे एथी उतावळे आत्मसार्थक करी लेवु. अयमंतकुमार, गजसुकुमार जेवां नानां वाळको पण मानवपणाने समजवाथी मोक्षने पाम्यां मनुष्यमां जे शक्ति वधारे छे, ते शक्तिवडे करीने मदोन्मत्त हाथी जेवां प्राणीने पण वश करी ले छे; ए शक्तिवडे जो तेओ पोतानां
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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