SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. कई कई शंका यायछे के आ असंख्यात द्वीपसमुद्रयुक्त जगत् वगर वनाव्ये क्याथी होय.?... . . . ::: -उ०-आपने ज्यांसुधी आत्मानी अनंत शक्तिनी लेश पण दिव्य प्रसादी मळी नथी त्यांसुधी एम लागे छे; परंतु तत्त्वज्ञाने एम नहीं लागे. "सम्मतितर्क" आदि ग्रंथनो आप अनुभव करशो एटले ए शंका नीकळी जशे. .. .. ___ -परंतु समर्थ विद्वानो पोतानी मृपा वातने पण द्रष्टांतादिकथी सिद्धांतिक करी देछे एथी ए त्रुटी शके नहीं पण सत्य केम कहेवाय? उ०---पण आने कंइ मृपा कथयानुं प्रयोजन नहोतुं, अने पळभर एम मानीए, के एम आपणने शंका थइ के.ए कथन मुषा हशे तो पछी जगत्काए एवा पुरुषने जन्म पण का आप्यो? नामयोळक पुत्रने जन्म आपवा शुं प्रयो‘जन हतुं ? तेम वळी ए पुरुषो सर्वज्ञ हता; जगत्कर्ता सिद्ध होत तो एम कहेवाथी तेओने कई हानि नहोती. ..... शिक्षापाठ १०७. जिनेश्वरंनी वाणी. मनहर छंद. अनंत अनंत भाव भेदयी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानीछे,, " .
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy