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________________ ( ३०६ ) ऋषिमंगलवृत्ति - पूर्वाई. आनंदधी ए महामुनिनी बहु स्तुति करी. ते श्रा प्रमाणे. “ धन्य पुरुषोमां मुकुटरूप, सत्वगुणना समुरूप अने पराक्रमश्री बाह्यनावरूप शत्रुने जीतनारा हे साधो ! तमे जयवंता वर्तो. तमे प्रथम अमारा सरखा बाह्य शत्रुनने जीतीनेपवी अंतरंग शत्रुने जीतवा माटे सऊ थयेला बो. जावशत्रुने जीतवाश्री त्रण जगत्ना प्राणीयो जेमना सकुलोनी स्तुति करे बे तथा ऋण जगत्मां पूज्य पाया एवा हे मुनिराज ! तमे जयवंता वर्तो. " या प्रमाणे मुनिना चरानी रजने वारंवार स्पर्श करीने स्तुति करता एवा युधिष्टिर नूपति अत्यंत प्रसन्न as पोताना बंधुन सहित चाल्या गया. पी पुष्ट बुद्धिवालो दुर्योधन त्यां व्यो. तेने पोताना क्रूर सेवकोए पेला मुनीश्वरने नामश्री नलखाव्या एटले तो ते कहेवा लाग्यो के, " अरे ! अमारा देशनो जंग करी अने वली पाखरु करी तुं अहिं आव्यो बे ? ठीकज श्रयुं जे आज तुं म्हारा हाथे चमचो. " वीर पुरुषोमां अधम अने क्रोधथी प्राकुल एवा दुर्योधने 1 वी रीते मुनिने तिरस्कार करी ए मुनिराजने एक बीजोराना फलश्री प्रहार करो. दुर्योधननी यावी चेष्टा जोइ परस्पर स्पर्धाविंत एवा बीजा दोनता याला सेवकोए तुरत उपरानपर पथ्थरना वर्षादथी मुनिने रुधिरमय बनावी दीधा. जोके पांवोए स्तुति करी ने कौरवोए प्रहार कस्यो तोपल ए मुनी एके उपर जरा पण संतोष तेम क्रोध दर्शाव्यो नहि. आ प्रमाणे उत्कृष्ट रीते शमताने नावता ए मुनि अनुक्रमे महा उदयवाला केवलज्ञानने पाम्या. मोक्षसुखना स्वादना अर्थी एवा हे श्रेष्ठ साधुन ! जेवीरीते शरीर बलवाला दमवंत राजयेि जाए तथा अजाण पुरुषोए करेला मान अपमानने चिपे समताप धारण करयुं तेवी रीते तमे पण निरंतर संसाररसना जोगने नाश करवामां समर्थ एवा समतारसने सेवो. ॥ इति दमदंत राजर्षि कथा ॥ जलपान नेमिसमुत्ति जाणतो जंनगेहिं रिक्तो ॥ सिग्कृिवारकमु। रामसुन जयन सिद्धिगन ॥ ४५ ॥ अर्थ - ठारका नगरी चलवाथी " हुं श्री नेमिनाथनो शिष्य चुं. " एम
SR No.010819
Book TitleRushimandal Vrutti Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhvarddhansuri, Harishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala Ahmedabad
Publication Year1901
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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