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________________ (३७५) ऋषिमंमलत्ति-पूर्वाई. कहो.? " शेठे का. “आप बोल्या विना सांनलो. शुक गुरुए अमने सांख्यमत जागनारानने पवित्रतारूप मूलवालो धर्म करवो कह्यो . कुंक, नदी, धरा, तलाव अने परवने विषे वली समुन्ना तीरने विषे जे बहु जलथी स्नान कराय तेज गुरुनए पवित्रता कही जे.” श्रावच्चा पुत्र सूरिये कह्यु. “सान्नल, जो एम तो रुधिरथी खरमाएलु नुत्तम वस्त्र रुधिरथीज पवित्र केम थाय, हे महालाग! एज प्रमाणे प्राणीयोना विनाशादि आरंनोथी पापी बनेलो प्राणी फरी शास्त्रमा कडेलां पाप आरंनयी निश्चे पवित्र केम थाय ? जो जीवमय जलश्री वहु स्नान करवाने लीधे पवित्र श्रयेला आत्मान स्वर्ग प्रत्ये जाय तो मांछला विगेरेने तो स्वर्गमां गयेलाज समजवा. जेम रुधिरथी खरमाएलुं वस्त्र, प्रथम खाराथी लीपीने पनी नना शुछ जलवमे धोवाथी स्वच थाय ठे तेमज सावद्य प्रारंनोमी कलुषित (पापी) थयेलो जीव, नपशम अने अहिंसादिक शुः हेतुश्री पवित्र श्राय छे." सुगुरुना धावा श्रेष्ठ नुपदेशरूप अमृतना पानथी सुदर्शन शेग्नां चित्तने मोहकारी अखंमित मिथ्यात्वरूप विप नाश पाम्यु. पठी हर्षित आत्मावाला तेणे श्री श्रावचा पुत्र मुनिने नमस्कार करी समकित मूलरूप श्रावक धर्म अंगीकार कस्यो अने दररोज अति आदरथी सूरिनी सेवा करवायी शुक्ष जिनशासनतुं सर्व जाणपणुं प्राप्त करयुं. हवे पोताना नक्त एवा सुदर्शन शेठे जिनमतनो अंगीकार कस्यानी अने सांख्यमत त्यजी दीधानी वात शुक गुरुए सांगली, तेश्री ते पोतानां मनमां विचार करवा लाग्यो के, “हुं सौगंधिक नगरीमा जइ म्हारा जक्त सुदर्शनने जैनमत त्यजी देवरावी फरी म्हारा मतमा स्थापन करूं." आम धारी ते पोताना परिवार सहित त्रण दंम तथा कमंमलादि चिन्होने धारण करें। लोगंधिक नगरी प्रत्ये गयो. त्यां ते संन्यासीयोना मठमां नतरी अने दंग कमंगल विगरे मकी पोते श्रोमा परिवार सहित सुदर्शन शेग्ने घेर गयो. सुदर्शन शेठ पण सम्यक्त्वनां अतिचार अने अन्य तीथिना स्तवनश्री नयनांत श्रयो तो शुक गुरुने प्रावता जो दृष्टिश्री तेमने निरखवापूर्वक नन्नो पण या नहि. ज्यारे दीर्घकाल पर्यंत पूर्वना परिचयवाला ते शुक गुरुने शेठे वंदना पण की नहि त्याग तो निर्मल बुध्विाला शुक गुरुए पोतज तेने का के, “दे मु
SR No.010819
Book TitleRushimandal Vrutti Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhvarddhansuri, Harishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala Ahmedabad
Publication Year1901
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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