SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री मलिनाथ चरित्र. (३२७) रचना करी. ज्ञानवंत एवा प्रनुए हादशांगीने निर्दूषण जागी तेनने नत्सव पूर्वक गणधरोनां पदे स्थाप्या, श्री जिनेश्वर त्यां चार प्रकारना संघनी रचना करीने पनी परिवार सहित पृथ्वी नपर विहार करवा लाग्या. पी ते महाराजर्षियो, पोतानी बुदिना योगथी संसारनो अंत करनारी हादशांगीनो अभ्यास करवा लाग्या. पवित्र चारित्रनुं पालन करनारा,श्राश्रवोने कय करनारा तथा सर्व दुःखनो नछेद करनारा ते महामुनियो, तीव्र तपथी सर्व प्रकारनां कर्मनो क्ष्य करीने अनुक्रमे केवलज्ञान पामीने सिद्धिपुरप्रत्ये गया. श्री मल्लिनाथ प्रनुने गृहावासमां एक सो वर्ष तथा केवलीपणा. मां पंचावन हजार वर्ष निर्गमन श्रया. त्यारपठी पोतानो निर्वाण समय नजीक आव्यो जाणी प्रन्नु, उत्तम तीर्थरुप संमेत शिखर नपर गया. त्यां तेमणे पांचसो साधु अने पांचसो साध्वीयोनी साथे एक मासन अनशन ली). चैत्रमासनी शुक्ल चोयने दिवसे नरणी नक्षत्रनो चश्मा बते स्थिरशरीरवाला जगत्गुरुए कार्योत्सर्ग कस्यो. पठी ते शैलेशी करवापूर्वक सर्व कर्मने संदारीने अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत आनंद अने अनंत वीर्यवाला मोक्ष प्रत्ये गया. शुइ चारित्रथी पवित्र एवा श्री मल्लिनाथना सर्वमलीने साधुन नी चालीश हजारनी संख्या हती. ए जिनेश्वरनी संयमर्नु आराधन करवामां । नद्यमवंत तथा क्रीयामां तत्पर एवी बंधुमती विगेरे पंचावन हजार साध्वीयो हती, जिनेश्वरनी आज्ञानुं आराधन करनार एक लाख ने चोराशी हजार श्रावको तथा त्रण लाख पांसठ हजार श्राविकान हती. वली उसो चोदपूर्वधारीयो, बे हजार अवधिज्ञानीयो, त्रण हजार ने उसो केवलज्ञानीयो, त्रण हजार ने पांचसो वैक्रीयलब्धिवाला, आठसो मनःपर्यवज्ञानवाला, एक ह. जार ने चारसो वादलब्धिवाला अने बे हजार अनुत्तरलब्धिवाला या प्रमाणे ए श्री मल्लिनाथप्रनुनो परिवार हतो. श्री मल्लिनाथ प्रनुनी वे प्रकारनी अं. तकृत नूमि हती के, जेमा एक युगांतकृत् नूमि अने बीजी पर्यायांकृत् नूमि हत्ती. देहान्नाना मंमले करीने इंग्नील मणिनी कांतिने जीतनार अने कामरूप दावानलने समन करवामां मेघ समान एवा नगणीशमा तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ प्रन्नु, तमारी मोक्ष संपनिने अर्थे थान. जेम श्री मल्लिनाथ अन्ननां मुखश्री निकलेला वचनरुप अमृतनुं पान करीने अत्यंत प्रसन्न अयेला, नज्वल
SR No.010819
Book TitleRushimandal Vrutti Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhvarddhansuri, Harishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala Ahmedabad
Publication Year1901
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy