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________________ ( १७‍ ) ऋषिमंगलवृत्ति - पूर्वाई. ता क. " हे मात ! पोताना पतिनी सेवाथी तो मने वनवास पण अत्यंत सुखकारी थशे. " या प्रमाणे कहीने नित्य शीलरूप अलंकारने धारण कर नारी सीता निर्मल चित्तश्री रामनी पाउल गइ. त्यां कवि नत्प्रेक्षा करे बे के, जेम दातारनी पावल कीर्त्ति, धर्मी पुरुषनी पावल श्रद्धा अने वीर पुरुषंनी पावल जयश्री जती शोने बे तेम रामनी पाबल जती सीता शोभती इती. 66 सर्व स्त्रीने विषे मुकुट समान आ सीताने धन्य बे के, जे पतिनी नक्तिश्री राज्यने त्यजी दइ वनने विषे जाय बे." आम पुरनी स्त्रीयोनां मुखथी पगले पगले पोतानी प्रशंसा सांजलती ते शीलरूप आभूषणवाली सीता प्रेमपूर्वक पतिनी साथे चाली. दवे अहिं रामनीज साथे रात्री दिवस निवास करनारा श्रने प्रेमना ऊ रारूप लक्ष्मण पोताना मनमां विचार करवा लाग्या के, “ अहो ! कैकेयीनी कपट चातुरीने धिक्कार बे के, जेणे राज्यने योग्य एवा श्री रामने वनवास पाववाने अने पोताना पुत्र भरतने राज्य अपाववाने माटे राजा पासेश्री आवो वरदान माग्यो. हुं करामात्रमां जरतने राज्यश्री दूर करी श्री रामने राज्यासने स्थापुं, परंतु एम करवाथी पितानी आज्ञानो नंग शुं न श्राय ? अर्थात् श्राय. अरे ! जनकसुता सहित श्री रामना चरण तो वनमां पण पहोच्यां ने दवे जो हुं श्रहिं रहुं तो म्हारा बंधुपणाना प्रेमने धिक्कार वे ! धिकार वे ! !” आम विचार करी जाइना स्नेहथी याकुल थयेला लक्ष्मण, पोतानी माता सुमित्रानी, पिता दशरथनी अने कौशल्यानी आज्ञा लइ बालश्री पूर्ण एवा जाथा सहित पोताना अर्णवावर्त्त धनुष्यने हाथमां लइ गुफामांश्री निकलेला केसरीसिंहनी पेठे पोताना भुवनश्री निकली जेम संसारना पारने पामेला उत्तम मुनिने वैराग्यवंत पुरुष मले तेम बहु दूर गयेला रामने मल्या. या वखते जेम बिजली ने मेघथी मंदराचल पर्वत शोने तेम लक्ष्मण अने जानकीव श्री राम अत्यंत शोजवा लाग्या. या पाउल जानकी, राम श्रने लक्ष्मण विनानुं दारण राजानुं घर, नेत्र ने नासिका विनानां मुखनी पैठे देखावा लाग्ं. दशरथ भूपति पल राम, जानकी अने लक्ष्मणना वियोगथी पोताना घरने स्मशान तुख्य मानवा लाग्यो. पठी ते वेगवाला घोमा नपर कान ने मंत्री सामंतोने साथे लइ रामनी पाउल गयो.
SR No.010819
Book TitleRushimandal Vrutti Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhvarddhansuri, Harishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala Ahmedabad
Publication Year1901
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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