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________________ ३९७ ] चर्या से मनुष्य का सामाजिक जीवन टिका हुआ है और इससे मनुष्य का विकास भी हुआ है । मनुष्य की बाल्यावस्था मातापिता आदि से परिचर्या पाकर ही कटती है और वह जवान होता है इसलिये समर्थ होने पर मातापिता की परिचर्या करना उसका कर्तव्य है । इसी प्रकार रोगी आदि की परिचर्या करना भी ज़रूरी है। गुरुजनों की परिचर्या उसकी ज़रूरत की नज़र से तो करना ही चाहिये पर विनय की दृष्टि से भी करना चाहिये। मनुष्य को अपनाने के लिये, उस पर प्रेम विजय पाने के लिये, परिचय एक बड़ा से बঙ্গ 7 साधन है । : सत्यामृत परिचर्या पैसे आदि स्वार्थ के लिये भी की जाती है पर वह तप नहीं है, वह एक तरह का 1: ' लेन देन है धंधा है । वह भी कुछ बुरा नहीं है, 1 समाज के लिये जरूरी भी है पर तब नहीं है । तप तो अपनी इच्छा से और लेन देन का विचार किये बिना सिर्फ कर्तव्य समझ कर किया जाता है । * परिचर्या में गहरा स्वार्थ भी हो सकता है। मोह भी हो सकता है, ऐसी हालत में भी वह तप न कहलायेगी | दुनिया भी उसे तप नहीं सम झती । कदाचित् वह इस बातको कह न सके, पर मन में समझती है, इसी प्रकार व्यवहार भी करती है। स्वार्थवश परिचर्या तप नहीं हैं किन्तु कृत-: ज्ञतावश परिचर्या करना तप है, कृतज्ञता विवशता का परिणाम नहीं किन्तु संयम का परिणाम है । निस्वार्थ परिचर्या से मनुष्य के बड़े बड़े स्वार्थ पूरे हो सकते हैं, परिचर्या से ही हम किसी " के प्रेमपात्र और उत्तराधिकारी तक बन सकते हैं। मां बाप को सन्तान की आवश्यकता, गुरु को 1. * शिष्य की आवश्यकता मनुष्य को मित्र की आवश्यकता जिन कारणों से होती है उनमें परिचर्या मुख्य है । परिचर्या के काम में अनुत्तीर्ण होने पर दूसरों की कृपा से वञ्चित रह जाना पड़ता है। और परिचर्या के कार्य में उत्तीर्ण होने पर बड़ी से बड़ी कृपाएँ सुलभ हो जाती हैं । हां, परिचयां एक बात है और परिचर्या का शिष्टाचार दूसरी बात है । शिष्टाचार तप नहीं है । हां, इसका भी मूल्य है, पर मूल्य है, अमूल्य नहीं है । परिचर्या तप अमुल्य है । परिचर्या के शिष्टाचार का फल हिसाब से मिलेगा पर परिचर्या तप का फल बेहिसाब होगा इसी प्रकार भय से, संकोच से, स्वार्थ से, जो परिचर्या की जाय उसका मूल्य भी बहुत थोड़ा हैं । इससे कौटुम्बिकता पैदा नहीं होती दिसाब से थोड़ा सा मूल्य मिल जाता है । परिचर्या का इतना गहरा और व्यापक स्थान है कि सेवा शब्द से साधारणतः परिचर्या ही समझी जाती है। सेवा के यो अनेक रूप है पर परिचर्या को मुख्यता होने से इसे ही लोग सेवा कहने लगे हैं । परिचर्या का भलाई या सुख के साथ सब से निकट का सम्बन्ध I ५ प रषह स्वपस्कल्याण के लिये अर्थात विश्व-कल्याण के लिये भूखण्यास आदि प्राकृतिक और ताड़न आदि प्राणिकृत कष्टों का सहन करना परिग्रह तप हैं। भूख ( अनशन या अल्पाहार ), प्यास रसत्याग, अल्पवस्त्र, इंद्रियों के सुन्दर विषयों का त्याग, इष्टवियोग, अनिष्टसहवास, अपमान, परिताड़न ( मारपीट ), अतिश्रम, बन्धन ( कैद ) आदि सैकड़ों परिषह तप हैं। कुछ तो अपनी इच्छा से किये जाते हैं उन्हें त्याग कहते हैं, कुछ
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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