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________________ ३९५ ] सत्यामृत कल्याण के लिये विरोध करना अनिवार्य हो जाय हमारी है या ये हम हैं इस दृष्टि स्ने जो पुरःकरण वहां विरोध अवश्य करना चाहिये पर जहां तक होगा उसमें अविनय होगा। बन सके विरोध से बचना चाहिये। . इस प्रकार के पक्षपाती पुरःकरण से विशेष • ४ पुरःकरण--चलने में, बैठने में भोजन के लाभ नहीं होता पर हानि अधिक होती है । अनुसमय नाम लेने में या किसी ऐसे कार्य में जो सन्माना- चित या पक्षपातपूर्ण पुरःकरण से अपने को आदर स्पद है किसी व्यक्ति को आगे करना उसका पुरः- के बदले घृणा, हँसी और ईर्ष्या ही अधिक मिलती है। करण विनय है । जहां जिस व्यक्ति की जैसी ५ प्रशंसा-किसी स्वार्थवश नहीं किन्तु गुणामुख्यता है वहां उसको वैसा ही पुरःकरण करना नुरागसे प्रशंसा करना भी एक प्रकारका विनय है। उचित है । साथ ही अन्य दृष्टियों से भी उसके ६ वैयावत्य-अनेक तरह से परिचर्या करके व्यक्तित्व का विचार रखना ज़रूरी है। इस पुरः- भी विनय प्रगट होता है। पगचंपी करना, आसन करण का भी मानव हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ता बिछादेना, आवश्यक वस्तु प्रस्तुत करना, और भी है। यों तो हर एक प्रकार के विनय का मानव- अनेक तरह से आराम पहुँचाने के कार्य करना हृदय पर प्रभाव पड़ता है पर पुरःकरण का खास विनय है । ? स्थान है । बहुत स लाग घूप बनाकर फाटा प्रश्न-परिचर्या को तो आपने स्वतंत्र तप उतरवाते हैं । इस अवसर पर त्यागी महात्माआ कहा है फिर उसको विनय तप में शामिल क्यों के मन भी डोल जाते हैं । अयोग्य व्यक्ति चञ्चलता किया जाता है। और अविनय के कारण जब उन्हें हटाकर उत्तर- परिचर्या के द्वारा हम दूसरों को अपना पुरःकरण कर लेता है तब उन महात्माओं आराम पहुँचाते हैं और विनय के द्वारा नम्रता का मुख हँसता रह कर भी मन खिन्न हो जाता प्रगट करते हैं । जहां आराम पहुँचाने की मुख्यता है। इसलिये ऐसे प्रपों में वे शामिल नहीं होते, है वहां परिचर्या स्वतन्त्र तप है जहां नम्रता प्रगट इसे उनका अभिमान भी नहीं कह सकते यह करने की मुख्यता है वहां विनय में शामिल है । आत्मगौरव का भान है । पुरःकरण में अनुचित है। जहां दोनों ही समान है वहाँ दोनों ही तप हैं। लाभ उठाकर हम योग्य व्यक्तियों की कृपा से ऐसे बहुत से अवसर आते हैं कि जहां वञ्चित रहने का मार्ग सरल बनाते हैं । इसका सेवा गौण और विनय मुख्य हो जाता है। एक कुछ न कुछ फल हमें भोगना ही पड़ता है । हमारा पुत्र अपने माता पिता की प्रतिदिन रात्रि को नाम पहिले छपे अच्छी जगह छपे, हमारी चीज़ पगचंपी करता है, एक मिनिट को ही क्यों न अच्छी जगह रक्खी जाय इन सब मनोवृत्तियों में । किया जाय पर प्रतिदिन करता है, पैरों के लिये पुरःकरण मामक विनय का भंग होता है | इस उसकी आवश्कयता का अनुभव हो या न हो तो विषय में अपने औचित्यानौचित्ल का विचार करना यह विनय तप कहलायगा । बहुत से स्थानों पर ही आवश्यक है । इस विवेक के साथ जितना विनय मुरूप नहीं होता वैयावृत्त्य मुख्य होता है । पुरःकरण आवश्यक हो करना चाहिये । पर यह कोई बाप बेटे की बीमारी में उसकी पगचंपी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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