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________________ ३९३ ] सत्यामृत होता है, उसके हाथ में हमारा स्वार्थ रहता है क्या इन लोगो के कारण मनुष्य में बौद्धिक दासता इसलिये राजस-भय होता है, अन्ध श्रद्धा के कारण नहीं आती ? उसके विषय में अप्रामाणिक चमत्कारों की कल्पना उत्तर-प्राणी अपूर्ण है । वह पारस्परिक कर लेते हैं उससे तामस भय पैदा होता है । इस सहयोग से ही पूर्णता के मार्ग में आगे बढ़ा हुआ प्रकार के पात्र पुराणों में बहुत मिलते हैं । दिखाई देता है । जिसकी हममें कमी है उसके इन्द्रादि के विषय में किसी किसी को तीनों भय लिये हमें दूसरों का सहारा लेना पड़ता है । होते थे। उसके व्यक्ति के विषय में जितने अंश बीमारी में हम अपने मत को गौण करके वैद्य के में सात्विक भय है उतने ही अंश में विनय तप मत को मुख्यता देते हैं । यह अनिवार्य है । है। शिष्टाचार के नाते जहां झुकना पड़ता है, जहाँ छोटा वैद्य बड़े वैद्य के मत को मुख्यता देता है गुणानुराग कृतज्ञता विश्व-बन्धुत्व नहीं है, वहां विनय यह उचित है । न्याय के लिये हमें एक न्यायातप नहीं है। विनय कहां पर तप है कहां पर धीश का मुँह ताकना पड़ता है । इस प्रकार नहीं है, इसकी ठीक ठीक परीक्षा तो उसके भावों हरएक व्यक्ति किसी न किसी कार्य में परमुखासे हो सकती है पर व्यवहार से भी भावों का पेक्षी है। जीवन के पथ-निर्वाचन में या कर्तव्यपता लगता है। निर्णय में प्रत्येक व्यकि पर्याप्त मात्रा में चतुर नहीं विन्य नब तरह के व्यक्तियों का किया जाता होता। ऐसे व्यक्ति किसी योग्य व्यक्ति को निस्तारक चुन लेते हैं यह बुरी बात नहीं है । है । १ निस्तारक २ विद्या-गुरु ३ गुरुजन ४ इससे उस व्यक्ति का भला तो होता ही है साथ उपकारी ५ जन सेवक, ६ अतिथि ७ बन्धुजन ही किसी कार्य को करने के लिये एक संगठित आश्रित ९ बहुनम 1 शक्ति भी मिल जाती है। उसके प्रकार साल हैं-१ आसन २ अंजलि हां, यह परमुखापेक्षिता इतनी मात्रा में न ३ अनुमोदन ४ पुरःकरण ५ प्रशंसा ६ वैयावृत्य ७ सम्पर्क भक्ति । पहिले इन शब्दों का अर्थ कर बढ़ जाय कि हम एक के बाद एक अनर्थों का पोषण करते चले जायँ, जो बात अनेक तरह देना ठीक होगा। कल्याणकारी सिद्ध हो चुकी हो, निस्तारक की निस्तारक-जो आपने जीवन का पथ निर्देश अन्ध-आज्ञा में फँसे रहकर उसका विरोध करते करता हो उद्धारक हा, जिसक ऊपर अपना चले जायँ । इसन्येि निस्तारक के चुनाव में सावअसाधारण विश्वास हो, जिसकी बात मानने में धानी रखना चाहिये । अमुक वेष के कारण हम अपना कल्याण समझते हों वह निस्तारक है। किसी को निस्तारक न मान लेना चाहिये । महावीर, बुद्ध, इसा, मुहम्मद आदि महात्मागण उसका त्याग, उसकी निःस्वार्थता, उसका अनुभव, नोविशाल जनसमुदाय के निस्तारक रहे हैं । बुद्धिमत्ता, विचारकता आदि की कसौटी होना आज भी सैकड़ों निस्तारक मौजूद हैं। चाहिये जिसपर कसकर हम उसे निस्तारक मानें। प्रश्न-निस्तारक क्या कोई आवश्यक व्यक्ति जहां तक हम में बुद्धि है विच रकता है वहां तक है? क्या ऐसे लोग गुरुडमके आधार नहीं हैं ? हम उससे काम लें, जब हमारी बौद्धिक शक्ति
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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