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________________ ३७७ ] स-यामृत काम कर ही सकता है कि दूसरे से काम न उसका कारण यह है कि तुम मौके पर अपनी लिया जाय इसलिये लोगों ने अपनी अपनी पुरानी सेवा का बदला लेसकों, न कि इसलिये कि योग्यता के अनुसार एक एक काम करके भी तुम सेवा लेने का अधिकार तो ज्यों का त्यों सुर - अपनी सब ज़रूरतों को पूरा करने का तरीका क्षित रक्खो और बीच में मुफ्त में सेवा लेते रहो । निकाला। यही कारण है कि ब्याज एक तरह का दुरर्जन है । पर न तो सबकी सेवाओं का मूल्य एक फिर भी साधारण ब्याज को हम दरर्जन सरीखा था और न सब एक सरीखे परिश्रमी थे नहीं कह सकते। जब तक पूंजी में पैदा करने की इसलिये उनकी सेवाओं में कमीबेशी होना शक्ति है तब तक ब्याज की प्रथा को नहीं रोका स्वभाविक था, इसलिये उसका बदलाभी कम जा सकता, अधिक ब्याज ही रोका जा सकता है । ज्यादा मिलना उचित था। जिसकी जितनी सेवा एक गरीब दुकानदार जितनी योग्यता और उसको उतना बदला । पर एक ही समय में सारा मेहनत से जितना रुपया पैदा करता है उससे बदला लिया नहीं जाता वह तो ज़रूरत के कई गुणा रुपया, एका पंजीपति दुकानदार, परिअनुसार ही लिया जाता है। पर जब ज़रूरत हो चय और योग्रता कुट कन होने पर भी पैदा कर तब कौन याद रक्ख, कोई क्या बताकर सिद्ध सकता है । इस प्रकार जब तक समाज में पूंजोकरे कि हमने इतनी सेवा की है इसलिये इतना पतित्व है और पूंजा में धनको पैदा करने की बदला मिलना चाहिये, इस के लिये धन की सामर्थ्य है तब तक ब्याज भी रहेगा, उसे मिटाने कल्पना हुई, सेवा के बदले में धान्य या सोना के लिय निति दी अर्थ-नीत का प्रयोग होना चांदी दिया जाने लगा और सोने चांदी के बदले चाहिये जिसमें पूंजीवाद को गुंजायश न रहे और में सेवा या कामकी चीजें मिलने लगीं। धनसम्पत्ति सरकार की तरफ से हर एक को पूंजी निल सके। और कुछ नहीं वह एक प्रकार की हुंडी है जा पर जब तक ऐसा निरतिवादी समाज नहीं है तब अपने पारिश्रमिक के बदले में समाज स सेवा लेने तक अधिक ब्याज को अवश्य रोकना चाहिये । के लिये दी गई है । उस हुंडी का उसी रूप में अधिक ब्याज को रोकने के लिये कुछ तो सरउपयोग होना चाहिये। कार को, कुछ व्यक्ति को सुधार और संयम सेवा के बदले में सेवा लेना यह विनिमय का से काम लेना ज़रूरी है । इसके लिये कम से कम मूल सिद्धान्त है । व्याज में इस मूल सिद्धान्त का इन दो बातों की विशेष आवश्यकता है । पालन नहीं होता । हमारे पास अगर सौ रुपये हैं अधिक ब्याज गैर काननी समझा जाय तो इसका मतलब यह है कि तुम्हारी उतनी सेवा जैसे सरकारी बैंक लोगों को जितने ब्याज पर समाज पर नत्रण है, वह सौ रुपया देकर तुम रुपया देते हैं उससे अधिक ब्याज कोई न ले यह सेवा देने का मौ रुपमा लिने के बदले सो । जो व्याज लेते हो वह तो मुफ्त में लेते हो। २-ऋण चुकाना अनिवार्य समझा जाय । समाज ने तम्हें रुपया रखने की जो अनुमति दी ऋणी ऋण चुकाने के लिये जीवन भर उत्तरदायी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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