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________________ सत्यामृत २२१ ] का उपभोग करे, तो यह आक्रमण शुद्ध पुण्य या शुद्ध प्रवृत्ति है। अशुद्ध पुण्य और शुद्ध पुण्य की किया एकसी दिखने पर भी उनकी भावना में अन्तर है और भावना के भेद से पीछे फल भी होता है। इस राष्ट्रोद्धार के कार्य में निम्न विसित अन्तर दिखाई देगा ! अशुद्ध रातोद्धारक बदला लेने में मर्यादा का विचार न करेगा, वह सीमोल्लंघन भी कर जायगा जब कि शुद्ध यी सीमोल्लंघन न करेगा | स्व अशुद्धगुण्णी की मनोवृत्ति सफल होने पर पाप की तरफ जल्दी झुक जाती है, वह स्वतंत्र होने पर दूसरों पर आक्रमण करने के लिये जल्दी तैयार हो जाता है शुद्धपुष्पी समभावी होने से पाप की तरफ नहीं झुकता । [ग] अपने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रयत्न में तीसरे राष्ट्र पर कोई अनुचित त्रिपदा तो नहीं आती इसकी पर्चा अशुद्धपी को न होगी जब कि शुद्धी को होगी । (ब) अपना राष्ट्र स्वतन्त्र हो जाने पर शुद्धgoat दूसरों को स्वतंत्र करने का यथाशक्ति प्रयत्न करता है जब की अशुद्ध या इसे शक्ति का अपव्यय समझना / इस प्रकार अशुद्रपुवी और शुद्धगुण्यी की भावना में जो अन्तर है वह समय पाकर फट में भी अन्तर पैदा करती है । अशुद्रपुण्यी के कार्य विश्वनि में कुछ न कुछ हानि पहुँचाते हैं। अब एक दूसरा उदाहरण हो । एक आदमी ने धर्मशाला बनवाई कि अमुक जाति के या सम्प्रदाय के या प्रान्त के आदमी ठहर सकें, दूसरों को उसमें रहने की मनाई रही तो यह पुण्य तो हुआ पर अशुद्धपुण्य हुआ । क्योंकि इसमें मनुष्य मात्र के बीच में बहनेवाली प्रेमधारा के टुकड़े हुए और इससे सुखवर्धक सहयोग घटा, तुमने अपनी जाति के लिये कुछ किया हमने अपनी जाति के लिये कुछ किया यह पक्षपात धीरे धीरे उपेक्षा और द्वेष में परिणत होकर सुखनाशक और दुःखवर्धक हो जाता है । हां, गुणानुराग खासकर संयमानुराग की दृष्टि से नियम बनाया जाय तो अशुद्धता न होगी । जैसे यहां नियम बने कि इस धर्मशाला में शराबी, मांसभक्षी, व्यभिचारी, लड़ने झगड़नेवाले, जुवारी आदि न ठहरने पावेंगे तो इस नियम से पुण्य शुद्ध ही बना रहेगा. क्योंकि इससे विश्वहित के नियमों को उत्तेजन मिलता है किसी मनुष्य पर उपेक्षा नहीं होती | यह नियम बनाना कि यहां ब्राह्मण ही ठहर सकेंगे अशुद्ध पुण्य है किन्तु विद्वानों को फिर वे किसी भी जाति के हों ठहरने का पहिला अवसर दिया जायगा ऐसा नियम बनाने से पुण्य अशुद्ध नहीं होता । यहाँ सत्यसमाजी ही ठहर सकेंगे यह नियम अशुद्ध पुण्य है, यहाँ सर्वधर्मसमभावा ही ठहर सकेंगे शुद्ध पुण्य है । मतलब यह कि गुणानुराग से पुण्य शुद्ध बना रहता है जब कि प्रारम्भिक छः पदों के मोह से पुण्य अशुद्ध हो जाता है । हां, यह अवश्य है कि उदार पदों में पहिले की अपेक्षा दूसरे आदि में पुण्य की अशुद्धि कम है। ऊपर जो बातें धर्मशाला के विषय में कहीं गईं हैं वे बातें मंदिर, औषधालय, छात्रवृत्ति देना, पाठशाला, अनाथरक्षा आदि सभी काम में समझ लेना चाहिये | प्रवृत्ति के इन तीन भेदों से यह पता लग जाता है कि सदाचार, संयम, या चारित्र में .
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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