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________________ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म मध्यवित्त श्रेणीकी थीं। उन्हें धनिक ठहरानेका प्रयत्न विनयपिटकमें किया गया है । उसीका अनुकरण इन कथाओंमें दिखाई देता है। यह सम्भव नहीं हो सकता कि महावीर स्वामीके जीवित-कालमें इतने धनीलोग मौजूद हों। बेचारे शब्दालपुत्र (सद्दालपुत्त) कुम्हारको भी इन जैन साधुओंने करोड़पति बना दिया ! सच पूछा जाय तो उस समय क्या जैन साधु, क्या बौद्ध भिक्षु, सभी कुम्हार, लुहार आदि श्रमजीवी वर्गके साथ ही अधिक सम्बन्ध रखते थे । मज्झिमनिकायके घटिकारसुत्तमें इसका वर्णन आता है कि काश्यप बुद्ध और घटिकार कुम्हारमें कितना घनिष्ठ परिचय था । घटिकार घरमें न हो तो भी काश्यप बुद्ध उसकी झोंपड़ीमें जाकर उसके बर्तनोंमेंसे अन्न लेकर भोजन करता था । गोतम बुद्धद्वारा परिनिर्वाणसे पहले चुन्द लुहारसे अन्नदान लिये जानेकी कथा तो सुप्रसिद्ध ही है। परंतु जैन साधुओंने तो सारे जैन उपासकोंको अत्यंत धनवानोंकी श्रेणीमें रख दिया। इसका अर्थ यह है कि साधारण जनताके साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहा और धनिकोंके बिना अपना अस्तित्व कायम रखना जैन सम्प्रदायके लिए असम्भव हो गया था। ईसाकी ११ वीं शताब्दीके लगभग बौद्ध भिक्षुओंकी स्थिति भी संभवतः ऐसी ही हो गई थी। सन् १०२६ में स्थिरपाल और वसंतपाल नामक दो धनी बन्धुओंद्वारा सारनाथकी सारी बौद्ध इमारतोंकी मरम्मत किये जानेका उल्लेख एक शिलालेखमें मिलता है* । बुद्ध और महावीर स्वामीके जमानेमें श्रमणोंका सारा दारोमदार साधारण जनतापर था । सामान्य लोगोंसे ही उन्हें भिक्षा मिलती थी । अनाथपिण्डिक जैसा * देखिए, “Guide to The Buddhist Ruins of Saranath" by Rai Bahadur Daya Ram Sohani.
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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