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________________ पाश्र्वनाथका चातुर्याम धर्म 66 'हे देवानुप्रिय, यहाँ कल एक दयावान् महापुरुष आनेवाला है । वह जिन है और त्रिलोकपूज्य है । अतः तू उसे प्रणाम करके उसकी सेवा कर ! " ५४ शब्दालपुत्र बोला, " मेरा धर्माचार्य गोसाल मंखलिपुत्र ही दयावान् जिन, और त्रिलोकपूज्य है। उसीको मैं प्रणाम करूँगा और उसी की सेवा करूँगा । " दूसरे दिन महावीर स्वामी उधर गये । उनके दर्शनोंके लिए बहुत-से लोग गये। यह ख़बर सुनकर शब्दालपुत्र भी उनसे मिलने गया और उनकी प्रदक्षिणा एवं प्रणाम करके उसने उसकी भक्ति की । तब महावीर स्वामीने उससे कहा कि, कल देवताने तुमसे जो कहा, वह गोशालके उद्देश्यसे बिलकुल नहीं कहा था । यह सुनकर शब्दालपुत्रने महावीर स्वामीको अपने कारखानेमें रहनेके लिए निमंत्रित किया । उसके अनुसार महावीर स्वामी वहाँ जाकर रहे । वहाँ मिट्टीके बर्तन सुखानेका काम चल रहा था । तब महावीर स्वामी शब्दालपुत्रसे बोले, " हे शब्दालपुत्र, क्या ये सारे बर्तन प्रयत्नके विना तैयार हुए हैं ? " शब्दालपुत्र - ये प्रयत्नसे नहीं हुए हैं। जो कुछ होता है वह नियत ही होता है; उसके लिए प्रयत्नकी आवश्यकता नहीं होती । महावीर स्वामी-यदि कोई इन बर्तनोंको तोड़ डाले या अग्निमित्राके साथ सहवास करने लगे तो तुम क्या करोगे ? शब्दालपुत्र —- मैं उसे शाप दूँगा, उसपर प्रहार करूँगा, उसे मार डालूँगा । महावीर स्वामी - तो फिर तुम्हारा यह कहना मिथ्या है कि सब कुछ नियति से होता है ।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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