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________________ जैन उपासक ४७ जैन उपासक राजाओं द्वारा की जानेवाली हिंसा, असत्य, चोरी या लूट खसोट और परिग्रहका निषेध करना श्रमणोंके लिए असंभव था। अतः उन्होंने अपने मंदिरों और उपाश्रयोंके लिए जितना कुछ मिल सकता था, प्राप्त करनेका सोचा होगा। परंतु इससे वे स्वयं चातुर्याम धर्मका त्याग कर रहे थे, इसका भान उन्हें नहीं रहा । इसका कारण यह था कि वे पूर्णतया सांप्रदायिक बन गये थे। अब संक्षेपमें इस बातका विचार हम करें कि अपने उपासकोंको खुश रखनेके लिए वे अपरिग्रहका अर्थ क्या लगाते थे। जैन अंगोंमें उपासकदशा नामका एक अंग है। उसमें दस उपासकोंकी कथाएँ हैं । उनमेंसे पहली आनन्द उपासककी कथा इस प्रकार है: आनन्द उपासक आनन्द उपासक वाणिज्यग्राम नामके नगरमें रहता था । वहाँ जितशत्रु नामका राजा राज करता था। आनन्द गृहपतिके पास चार करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ ज़मीनमें गाड़ी हुई, चार करोड़ व्यापारमें लगाई हुई, चार करोड़ अनाज़, जानवर आदि (प्रविस्तर ) में लगाई हुई थीं और दसदस हज़ार गायोंके चार रेवड़ थे। उसकी स्त्री शिवनन्दा अत्यंत सुन्दरी थी। वाणिज्यग्राम नगरसे बाहर कोल्लाक नामका संनिवेश था। वहाँ आनन्द गृहपतिके अनेक आप्त-मित्र रहते थे। उस संनिवेशमें एक बार महावीर स्वामी गये तो जितशत्रुराजा उनके दर्शनोंके लिए पहुँचा । इसकी खबर मिलते ही आनन्द गृहपति भी वहाँ गया और उस सभामें
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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