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________________ बौद्ध और जैन धर्मका प्रसार ३३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm बौद्ध और जैन धर्मका प्रसार आजीवक, निर्ग्रन्थ, बौद्ध आदि श्रमणसंघ मगध और कोसल देशोंमें उदित हुए और प्रारंभमें वे प्रधानतया इन्हीं दो देशोंमें और आसपासके राज्योंमें अपने अपने धर्मका प्रचार करते रहे । अशोकके शासनकालमें यह स्थिति बदल गई। उसने इन श्रमणसंघोंको काफी प्रोत्साहन दिया । बौद्ध संघका तो वह भक्त ही था और बौद्ध धर्मके प्रचारके लिए उसने जो कुछ किया वह प्रसिद्ध है। इतना होते हुए भी वह अन्य श्रमणसंघोंके साथ उदारताका बरताव करता था । विशेषतः आजीवक संघपर उसकी विशेष कृपा थी। यह बात बार्बर (गयाके पास) पहाड़की गुफाओं में मिले हुए उसके शिलालेखोंसे दिखाई देती है। उसके सातवें स्तंभलेखपरसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आजीवकोंके बाद वह निर्ग्रन्थसंघका भी खयाल रखता था। श्वेताम्बर जैनोंका कहना है* कि अशोकका पोता संप्रति, जो कि उज्जैनका राजा था, प्रथमतः जैन संघका भक्त हुआ। उसके बाद कलिंग देशमें खारवेल राजा जैन संघका भक्त बना । मगध देशमें निपँथ अक्सर सवस्त्र होते थे, अचेलक शायद ही होते । परंतु वे जैसे जैसे दक्षिणकी ओर गये, वैसे वैसे नग्नताकी ओर झुकते गये । और इधर जो लोग पश्चिमकी तरफ गये उन्होंने अपना सवस्त्रत्व नहीं छोड़ा। इसका मुख्य कारण शायद आबोहवा थी । हो सकता है कि इसके पीछे राजाओंकी अभिरुचि भी रही हो । नग्न जैन साधुओंको जिनकल्पी और सवस्त्र साधुओंको स्थविरकल्पी कहते हैं । इस सम्बन्धमें विस्तृत x देखिए, पृष्ठ २९-३० । * केम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया, पहला वोल्युम पृ० १६६ ।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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