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________________ ३० पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म सत्वको यह स्पष्ट दिखाई दिया कि ऐसे वादोंसे सत्कर्म योगमें कोई लाभ नहीं बल्कि हानि ही होती है । और उन्होंने आत्माको बीचमें न लाकर अपना मार्ग निकालनेका प्रयत्न किया, जब उन्हें वह मार्ग मिल गया तभी वे बुद्ध हो गये। उनके अष्टांगिक मार्गके लिए आत्माकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है । इस संसारमें दुःख विपुल है; उसका कारण मानवोंकी तृष्णा है और उसके आत्यंतिक निरोधकी ओर ले जानेवाला अष्टांगिक मार्ग है। इस मार्गका विवरण 'भारतीय संस्कृति आर अहिंसा' (पृ. ५६-६२ ) और ' भगवान् बुद्ध ' (पृ. १३८-१४४ ) इन दो पुस्तकोंमें आ चुका है; अतः यहाँपर उसे हम नहीं दुहराते । __ इस आर्य अष्टांगिक मार्गका समावेश शील, समाधि और प्रज्ञा इन तीन स्कन्धोंमें होता है । सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्म और सम्यक् आजीव इन तीन अंगोंका समावेश शील स्कन्धमें होता है; सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् दृष्टि एवं सम्यक् संकल्प इन दो अंगोंका समावेश प्रज्ञास्कन्धमें होता है+। शीलस्कन्ध बुद्ध धर्मकी नींव है। शीलके बिना अध्यात्ममार्गमें प्रगति होना संभव नहीं है । पार्श्वनाथके चार यामोंका समावेश इसी शीलस्कन्धमें किया गया है और उसीकी रक्षा एवं अभिवृद्धिके लिए समाधि तथा प्रज्ञाकी आवश्यकता है । केवल आकंखेय सुत्त (मज्झिमनिकाय) पढ़नेसे भी पता चल जायगा कि भगवान् बुद्धने शीलको कितना महत्त्व दिया है। अतः यह स्पष्ट है कि बुद्धने पार्श्वनाथके चारों यामोंको पूर्णतया स्वीकार किया था। उन्होंने उन यामोंमें आलारकालामकी समाधि और अपनी खोजी हुई __ + देखिए : चूळवेदल्लसुत्त, मज्झिमनिकाय । * भारतीय संस्कृति और . अहिंसा पृ. ५९-६० । शील, समाधि और प्रज्ञाका वर्णन 'बुद्ध, धर्म, आणि संघ' नामक पुस्तकके दूसरे व्याख्यानमें आया है। उसे वहाँ देखा जा सकता है।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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