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________________ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म बन जाते। परंतु सारी तपश्चर्या समाप्त होनेके बाद महावीर स्वामी अपने पहलेके निपँथ सम्प्रदायमें चले आये होंगे। उनका नेतृत्व निग्रंथोंने स्वीकार किया, फिर भी उनका अचेलकत्व स्वीकार करनेके लिए वे तैयार नहीं थे। महावीर स्वामीने भी इस सम्बन्धमें अधिक आग्रह नहीं रखा। संभवतः यह तै पाया कि हर कोई अपनी इच्छाके अनुसार सचेलक या अचेलक बने । क्यों कि पालि त्रिपिटकमें निग्रंथोंको अचेलक नहीं कहा गया है। अंगुत्तरनिकायके उल्लिखित अवतरणसे यह स्पष्ट दिखाई देता है कि निग्रंथोंके पास कमसे कम एक वस्त्र रहता था । बौद्ध वाङ्मयमें अचेलक शब्द केवल आजीवकोंके लिए प्रयुक्त किया गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि अशोकके ज़मानेतक तो केवल आजीवक ही नग्न रहते थे। आजीवक मतका विपर्यास हमें ऐसी दृढ़ शंका है कि गोसालके मतका भी बौद्धों और जैनोंने बहुत विपर्यास किया होगा । गोसाल यह कहता था कि सारे प्राणी नियति (दैव ), संगति और भाव ( स्वभाव ) इन तीन गुणोंसे परिणत होते हैं। मनुष्य सौ बरसके आगे-पीछे मर जाता है या अमुक पदार्थके अमुक गुण होते हैं, यह नियति समझनी चाहिए । संगतिका गुणगान तो स्वयं बुद्धने ही किया है और हमारे मध्ययुगीन साधु-सन्तोंने उसपर बहुत जोर दिया है । आधुनिक कालमें भी सोशलिस्ट ( साम्यवादी) संगतिको उतना ही महत्त्व देते हैं । स्वभावसे ही मनुष्य कोई १ नियति-संगति-भाव-परिणता । दीघ० ११३० २ भारतीय संस्कृति और अहिंसा पृ० १७५-१७७ ३ यहाँपर संगतिका अर्थ है परिस्थिति । Merrie England नामक पुस्तकमें पढ़ी हुई एक घटनाका स्मरण यहाँ होता है । वह इस प्रकार है :
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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