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________________ पार्श्वनाथकी कथा .. - ----- -- - इस प्रकार पार्श्वके आग्रहके कारण अश्वसेनने उसे लड़ाईके लिए भेज दिया । पार्श्वने कुशस्थली जाकर यवनको पूरी तरह हरा दिया और यवन उसकी शरण गया। तब पार्श्वनाथने यवनको ताकीद की कि वह फिर कभी ऐसा न करे और उसे अपने राज्यमें वापस जानेकी अनुमति दे दी। इसके बाद प्रेसनजित् राजाने पार्श्वका बड़ा गौरव किया और प्रभावतीकी प्रीतिकी बात उसे सुनाई । तब पार्श्व बोला, " पिताजीकी आज्ञासे मैं केवल आपकी रक्षाके लिए यहाँ आया हूँ, न कि आपकी कन्याके साथ विवाह करनेके लिए।" यह सुनकर प्रभावती बहुत उदास हुई; परंतु प्रसेनजित्ने उसे सांत्वना दी और उसे साथ लेकर वह पार्श्वनाथके साथ वाराणसी पहुँचा । वहाँ अश्वसेनने उसका उचित स्वागत किया। प्रसेनजित्ने उसे प्रभावतीका हाल सुनाया और फिर अश्वसेनके आग्रहके कारण पार्श्वनाथने उसका पाणिग्रहण किया। उन दिनों कठ नामका एक तापस वाराणसीसे बाहर पंचाग्निसाधन आदि तप कर रहा था । सारे नागरिक उसे देखने जाते । अतः पार्श्व भी वहाँ चला गया । उसे उस तापसकी धूनीमें जलनेवाले एक लक्कड़में एक बड़ा साँप दिखाई दिया । तब वह बोला, “कैसा अज्ञान है यह ! यह तपस्वी है, फिर भी इसके दया नहीं है। विना दयाके धर्म कैसा ?" तब कठ बोला, “ राजपुत्र तो हाथी घोड़े आदि ही जानते हैं, परंतु हम मुनिधर्म जानते हैं।" इसपर पार्श्वने अपने नौकरोंसे वह जलनेवाला लक्कड़ बाहर निकलवाकर कटवाया तो उसमें थोड़ा-सा जला हुआ धरण नामका नाग निकला। पार्श्वने लोगोंसे कहा कि वे उस नागको नमस्कार करें। लोगोंने पार्श्वके अन्तर्ज्ञानकी तारीफ़ की। यह सुनकर कठने और भी कठोर तप शुरू किया और मरकर वह मेघमाली नामक असुर हुआ ।
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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