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________________ अनुयायियोंमें ये दोष नहीं आये हैं या नहीं आयेंगे । धर्मानन्दजी कोसम्बीने स्वयं बौद्ध होते हुए भी बौद्ध पंथको कहीं मुआफ़ नहीं किया है। महावीर स्वामीने पार्श्वनाथके चातुर्याम-धर्मका विस्तार किया । पार्श्वनाथका संप्रदाय आज कहीं भी स्वतंत्र रूपसे दिखाई नहीं देता, अतः उनके चातुर्याम धर्मकी सांप्रदायिक विकृति उपलब्ध नहीं । शायद इसीलिए धर्मानन्दजीको पार्श्वनाथके चातुर्याम धर्मके प्रति विशेष आकर्षण प्रतीत हुआ। ___पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म ही महावीरके पंच महाव्रतोंमें परिणत हुआ है। यही धर्म बुद्ध के अष्टांगिक मार्गमें और पातंजल योगके यम-नियमोंमें प्रकट हुआ है । गाँधीजीके आश्रम धर्ममें भी प्रधानतया चातुर्याम धर्म ही दृष्टिगोचर होता है। गाँधीजीकी कार्यपद्धति ऐसी प्रतीत होती है कि स्वराज्यकी प्राप्तितक समूचे राष्ट्रको सत्य और अहिंसाकी दीक्षा दी जाय तथा स्वराज्यप्राप्तिके बाद अस्तेय एवं अपरिग्रहमूलक समाज-व्यवस्थाकी प्रस्थापना की जाय; और इस प्रकार ऐहिक एवं पारमार्थिक मोक्षकी प्रप्ति करानेवाला सर्वोदय सिद्ध किया जाय। वेदान्तके मूलमें भी चातुर्याम धर्म है। यों देखा जाय तो चातुर्याम धर्मका अर्थ है, मनुष्यद्वारा अपनी असामाजिक वृत्तिको दूर करके विश्वकुटुंब-स्थापनाकी पूर्व तैयारी करनेवाला समाजधर्म । समाज-वादको लीजिए या साम्यवादको, प्रजातंत्रको लीजिए, या अराज-वादको---सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रहके चार सामाजिक सद्गुणोंके बिना कोई भी समाजरचना स्थायी रूपसे सिद्ध नहीं हो सकेगी। इन चार यामोंके साथ ही, कमसे कम संयमके रूपमें तो ब्रह्मचर्यके पाँचवें यामकी वृद्धि करनी ही होगी और इन सबके मूलमें आत्मौपम्य बुद्धि रखकर उस वृत्तिका विकास विश्वात्मैक्य तक करना ही होगा, यह बात गले उतरेनेमें देर नहीं लगेगी। ___ यदि पुराने धर्मोको भविष्यमें बनाये रखना हो तो उनके चारों ओर जमे हुए संकीर्णताके अधार्मिक जालको दूर करना ही होगा; और फिर यह साबित करना होगा कि इस समय मनुष्य-जातिके सामने जो महान् एवं कठिन समस्याएँ खड़ी हैं उन्हें सुलझानेका सामर्थ्य इन धोके
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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