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________________ मार्गानुसारी (धर्माधिकारी) के ३५ गुणों पर विवेचन व्याख्या (१) न्यायसम्पन्न-विभव-नीतिमान गृहस्थ को सर्वप्रथम स्वामिद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वासघात तथा चोरी आदि निंदनीय उपायों का त्याग करके अपने-अपने वर्ण के अनुसार सदाचार और न्यायनीति से ही उपार्जित धन-वैभव से सम्पन्न होना चाहिए। न्याय से उपाजित किया हा धन-वैभव ही इस लोक में हितकारी हो सकता है । जिसका धन न्यायोपार्जित होता है; वह निःशंक हो कर अपने शरीर से उसका फलोपभोग भी कर सकता है; और मित्रों एवं स्वजनों को भी यथायोग्य बांट सकता है। कहा है-"अपने पुरुषार्थ और बल से उपार्जित करने वाला धीर पुरुष स्वाभिमानी और प्रत्येक स्थान में पवित्र तथा निःशङ्क होता है और बुरा कार्य करने वाला तथा अपनी आत्मा को कुकर्म से मलिन करने वाला पापी प्रत्येक स्थान पर शंकाशील होता है।" नीतिमान गृहस्थ परलोक के हित के लिए अपने न्यायाजित धन का विनियोग सप्त-क्षेत्ररूपी सत्पात्र में कर सकता है तथा दीनों, अनाथों बादि पर अनुकम्पा करके उन्हें दान दे सकता है। किन्तु अन्याय से इकट्ठे किए हए धन से तो दोनों लोकों में अहित ही होता है। अन्याययुक्त कार्य लोकविरुद्ध होने से उसके कर्ता को इस लोक में वध, बंधन, अपकीति आदि मिलते हैं; और परलोक में भी उक्त पाप से नरकादि दुर्गति में भ्रमण करना पड़ता है। कदाचित किसी अन्याय-अनीतिमान व्यक्ति को पापानबन्धी पुण्यकर्म के योग से इस लोक में विपत्ति नजर न आए; परन्तु भविष्य में या आगामी भव में तो उस पर अवश्य ही विपत्ति आती है। कहा भी है-"अर्थ के मोह में अन्धा बना हुआ जीव पापकर्म करके किसी भी समय उसका फल अवश्य प्राप्त करता है। कांटे में पिरोये हुए मांस के समान उसका नाश किये बिना उस पाप का अन्त नहीं आता।" इसलिए न्यायवृत्ति एवं परमार्षदृष्टि से घन-उपार्जन करना ही श्रेष्ठ उपाय है, जिसके लिए कहा है-'जैसे मेंढक जलाशयों की ओर एवं पक्षी पूर्ण सरोवर की तरफ स्वतः खिंचे चले आते हैं, वैसे ही शुभकर्म वाले व्यक्ति के पास सभी संपत्तियां वशीभूत हो कर चली आती हैं।' 'गृहस्थ-जीवन में धनवैभव प्रधान कारण होने से प्रथम 'न्यायसम्पाविमव' नाम का गुण बताया है। (२) शिष्टाचार-प्रशंसक-शिष्ट पुरुष वह कहलाता है, जो व्रत, तप आदि करता हो, ज्ञान वृद्धों की सेवा से जिसे विशुद्ध शिक्षा मिली हो, विशेषतः जिसका सुन्दर आचरण हो, उदाहरण के तौर पर वह लोकापवाद से डरता हो, दीन-दुखियों का उद्धार करने वाला हो, प्रत्येक मनुष्य का आदर करता 'हो, कृतज्ञ हो और दाक्षिण्य-गुणों से युक्त हो । इन सब गुणों से युक्त पुरुष को सदाचारी (शिष्ट) कहा जाता है। सद्गृहस्थ को उसके आचार-विचार का प्रशंसक-समर्थक होना चाहिए। शिष्ट पुरुष बाचार में ऐसा होता है-आपत्तिकाल में उत्तम स्थान को न छोड़े, महापुरुषों का अनुसरण करे, जनप्रिय एवं प्रामाणिक (न्यायनीतियुक्त) वृत्ति से जीवन-निर्वाह करे ; प्राणत्याग करने का अवसर आए तो भी निन्दनीय कार्य नहीं करे, दुर्जन से कभी याचना न करे, मित्रों से जरा भी धन नहीं मांगे । सचमुच इस तरह का दुष्कर एवं असिषारा के समान कठोर व्रत सज्जनों को किसने सिखाया होगा? (३) समानकुल और शील पाले मित्रगोत्रीय के साथ विवाह-सम्बन्ध-पिता, दादा आदि पूर्वजों के वंश के समान (खानदानी) वंश हो ; मद्य, मांस मादि दुर्व्यसनों के त्यागरूपी शील-सदाचार भी समान हो, उसे समानकुलशील कहते हैं । उस प्रकार के कुलशीलयुक्त वंश के एक पुरुष से जन्मे हुए स्त्री-पुरुष एकगोत्रीय कहलाते हैं, जबकि उनसे भिन्न गोत्र में जन्मे हुए भिन्नगोत्रीय कहलाते हैं। तात्पर्य
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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