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________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश बनस्पति और उस काय के जीवों का विराधक है और प्रतिलेखमा में प्रमादी है।" इसलिए जो कुछ भी उपकरण उठाए या रखे जांय, पहले उस पर दृष्टिपात करे, बाद में ओघे (रजोहरण) से उसका प्रमार्जन फिर उसे ग्रहण करे या रखे । इस प्रकार की प्रवृत्ति को आदान-निक्षेप-समिति कहते हैं । जैसे भीमसेन का सक्षेप में 'भीम' नाम से प्रयोग किया जाता है। वैसे ही यहां इस समिति के विस्तृत नाम का संक्षिप्त 'आदान' शब्द से प्रयोग किया गया है। अब पांचवीं उत्सर्ग-समिति का विवरण प्रस्तुत करते है कफ-मूत्र-मलप्रायं, निर्जन्तु-गतीतल । यत्नाद् उत्सृजेत्, साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥४०॥ अर्थ साधु जो कफ, मल, मूत्र आदि परिष्ठापन करने (गलने या फेंकने) योग्य पदार्थों को जीव-जन्तु-रहित जमीन पर यतना विधिपूर्वक त्याग (परिष्ठापन) करते हैं, वह उत्सर्गसमिति है। व्याख्या ___मुख, नाक आदि में से निकलने वाले कफ और श्लेष्म, मूत्र, विष्ठा आदि प्रायः शरीर के दूषित व फैकने या डालने योग्य पदार्थ हैं। 'प्रायः' शब्द से परिष्ठापन-योग्य टूटे-फूटे या अवशिष्ट वस्त्र, पात्र, भोजन पानी आदि समझने चाहिए । इन सबका स-स्थावर-जन्तु से रहित अचित्त पृथ्वीतल पर धूल या रेती में यतना से उपयोगपूर्वक उत्सर्ग करना ; उत्सर्गसमिति कहलाती है। अब तीन गुप्तियों में से प्रथम मनोगुप्ति के सम्बन्ध में कहते हैं वमुक्ताल्पनाजालं समत्वे प्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञ मनोगुप्तिरुदाहृता ॥४१॥ अर्थ मन की कल्पना-जाल से मुक्ति, समभाव में स्थिरता और मात्मस्वरूप के चिन्तन में रमणता के रूप में रक्षा करने को पण्डितपुरुषों ने मनोगुप्ति कहा है। व्याख्या __ यहां मनोगुप्ति (मन की दुष्प्रवृत्तियों से रक्षा) तीन प्रकार की बताई गई है-(१) मातं. ध्यान और रोद्रध्यान के फलस्वरूप उठने वाले कल्पनाजाल से मन का वियोग कराना, (२) शास्त्रानुसारी, परलोक-साधक, धर्म-ध्यान करने वाली मध्यस्थ-परिणति या समता में मन को प्रतिष्ठापित करना, (३) कुशल-अकुशल मनोवृत्ति को रोक कर योग-निगेध अवस्था पैदा करने वाली आत्मरमणता अर्थात् आत्मभाव में मन को लीन करना। इस दृष्टि से मनोगुप्ति के तीन विशेषण बता कर कहते हैं कि "मात-रौद्रध्यान से मन को मुक्त करके आत्मसमभाव में उसे स्थापित करना बौर आत्मगुणों में रमण कराना ही मनोनिग्रह के वास्तविक उपाय हैं । इन्हें ही मनोगुप्ति कहा है। अब वाग्गुप्ति का निरुपण करते हैं संज्ञादि-परिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तः संवृतिः । या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥४३॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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