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________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश यनना (उपयोग) सहित प्रवृत्ति करना आदानसमिति है (४) रास्ते में जाते-आते नीची और सम्यक दृष्टि रख कर किसी जीव की विराधना किये बिना यतनापूर्वक गमनागमन करना ईर्यासमिति है। (५) आहार-पानी देख कर लेना और उपलक्षण से आहार के समय भी अहिंसा-भाव रखना, जिससे चींटी, कुथु आदि जीवों की विराधना न हो, यह दृष्टानपानग्रहण-भावना कहलाती है । यहाँ पर गुप्तियों और समितियों को महाव्रत की भावनारूप ममझना । तीन गुप्ति आदि का आगे इसी ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया जायेगा, इसलिये गुप्तियों और समितियों को उत्तरगुण के रूप में भी समझा जा सकता है । कहा भी है-'पिंड-विशुद्धि, पांच समितियां, भावना, दो प्रकार का तप, प्रतिमा और अभिग्रह ये उत्तर गुण के भेद हैं । अब मनोगुप्ति की भावना देखिए । जितनी भी हिंसा है, वह सबसे पहले मन में पैदा होनी है । यानी हिंसा में मनोव्यापार की प्रधानता है। सुना जाता है कि राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ने अहिंसा महाव्रत की मनोगुप्तिरूप-भावना नहीं की, इस कारण बाहर से हिंसा नहीं करने पर भी एक दफा तो उन्होंने सातवें नरक के योग्य पापकर्मदल इकट्ठे कर लिये थे। एषणासमिति, आदानसमिति और ईर्यासमिति; ये अहिंसा महाव्रत के लिए अत्यन्त उपकारी हैं। इसलिए इन भावनाओं से अन्तःकरण सुवासित करना चाहिए, दृष्टान्नपानग्रहण (देखकर अन्न पानी ग्रहण करने की, भावना से एवं प्रसादि जीवों सहित आहार-पानी का त्याग करने से यह भी अहिंमा-महावत की उपकारिणी होती है । इस प्रकार अहिंसा-महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन पूर्ण हुआ। अब दूसरे महाव्रत की पांच भावनाएं देखिए हास्य-लोभ-भय-क्रोध प्रत्याख्याननिरन्तरम् । आलोच्य भाषणेनापि भावयेत सूनृतवतम् ॥२७॥ अर्थ हास्य, लोम, भय और क्रोध के त्याग (नियंत्रण) पूर्वक एवं विचार करके बोले; इस प्रकार (पांच भावनाओं द्वारा) सत्यवत को सुदृढ़ करे। व्याख्या मनुष्य एक दूसरे की हँसीमजाक करते समय झूठ बोल देता है, लोभाधीन बन कर धन की आकांक्षा से झूठ बोल देता है, प्राणों की रक्षा या प्रतिष्ठा जाने आदि के भय से और क्रोध से मनचलित होने के कारण झूठ बोलता है। इन हास्य आदि चारों के त्याग के नियमरूप चार भावनाएं हैं और अज्ञानतापूर्वक अंधाधुध अंटसंट न बोल कर सम्यग्ज्ञान से युक्त अच्छी तरह विचार कर बोला जाय, यह पांचवीं भावना है । मोह मृषावाद का कारण है, यह जगत्-प्रसिद्ध ही है। कहा भी है-"रागाढा, द्वेषाढा, मोहादा, वाक्यमुच्यते तर पन्तम् ।' 'राग से, द्वेष से, अथवा मोह से जो वाक्य बोला जाता है, वह असत्य कहलाता है। अब तीसरे महाव्रत की ५ भावनाओं का वर्णन करते हैं आलोच्यावन याञ्चाऽभीक्ष्णवग्रह-याचनम् । .. प्रतावन्मात्रमेवतदित्यवग्रह-धारणम् ॥२८॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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