SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश CRE अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महावत हैं और इन पांचों महावतो में से प्रत्येक महावत पांच-पांच भावनाओं से युक्त होता है। ये भावनाएं मुक्ति के लिए (सहायक) होती हैं। व्याख्या ___ अहिंसा आदि पांच महाव्रतों की प्रत्येक की पांच-पांच भावनाएं हैं। इसीलिए कहा गया है कि यदि भावना को सतत जागृति रहे तो साधक उससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है । अब अहिंसारूप प्रथम महाव्रत का स्वरूप करते हैं न यत् प्रमादयोगेन जीवित-व्यपरोपणम् । नसानां स्थावराणां च तदा सावतं मतम् ॥२०॥ अर्थ प्रमाद के योग से त्रस या स्थावर जीवों के प्राणों का हनन न करना, प्रथम अहिंसा महावत माना गया है। व्याख्या प्रमाद का अर्थ है-अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, मन, वचन और काया के योगों के प्रतिकुल आचरण करना और धर्म का अनादर करना। इसप्रकार प्रमाद आठ प्रकार का कहा गया है। उक्त प्रमाद के योग से त्रस (द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पचेन्द्रिय) अथवा स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय के) जीवों के प्राणों का नाश करना हिंसा है, और हिंसा के निषेध या जीवों के रक्षण को ही प्रथम अहिंसा-व्रत कहा गया है। अब दूसरे महाव्रत का स्वरूप कहते हैं प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते । तत् तथ्यमपि नो तथ्यम्, अप्रियं चाहितं च यत् ॥२१॥ अर्थ दूसरे को प्रिय, हितकारी और यथार्थ बचन बोलना सत्यवत कहलाता है। परन्तु जो बचन अप्रिय या अहितकर है, यह तथ्यवचन होने पर भी सत्यवचन नहीं कहलाता। व्याख्या अमृपास्वरूप सत्यवचन सूनृतव्रत कहलाता है। सुनने मात्र से जो आनन्द दे, वह प्रिय वचन है और भविष्य में जो हितकारी हो वह पथ्य वचन है । जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही कहना तय्य है; वही यथार्थ वचन कहलाता है। यहां सत्यव्रत का अधिकार होने से तथ्य उसका एक विशेषण है। य शंका होती है कि सत्य के साथ प्रिय और पथ्य इन विशेषणों के कहने का क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि, "कई बार व्यवहार से तथ्य होने पर भी चोर को चोर या कोढ़ी को कोड़ी मादि
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy