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________________ जीवतत्त्व का वर्णन और चौदह गुणस्थान ५५ और खेचर, नारकी, मनुष्य और देव ये सभी पंचेन्द्रिय जीव होते हैं । मन, वचन और काया रूप तीन बल, पांच इन्द्रियाँ, आयुष्य और श्वासोच्छ्वास ये १० प्राण कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के शरीर (काया) आयुष्य, श्वासोच्छ्वास और इन्द्रिय ये ४ प्राण होते हैं । द्वीन्दिय के ५, त्रीन्द्रिय के ६, चतुरिन्द्रिय के ७ असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ओर संज्ञी पंचेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं। पंचेन्द्रियों में देव और नारक उपपात ε जन्म वाले तथा मनुष्यों और तिर्यचों में प्रायः गर्भ से जन्म लेने वाले तथा तियंचों में जरायुज, पोतज और अंडज (अंडे से होने वाले ) ये सब संजी पंचेन्द्रिय होते हैं और शेष संमूच्छिमरूप से उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। संमूच्छिम जीव और नरक के पानी जीव नपुंसक होते हैं । वेद तीन हैं - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद; ये दोनों वेद होते हैं। मनुष्यों और तिर्यंचों के तीन वेद होते हैं। सभी जीवों के व्यवहार-राशि और अव्यवहार- राशि, ये दो भेद होते हैं । सूक्ष्म निगोद के जीव अव्यवहार - राशिगत माने जाते हैं, और शेष समस्त जीव व्यवहारराशिगत कहलाते हैं । सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत और मिश्र, शीत, उष्ण और शीतोष्ण, इस प्रकार जीव के नौ प्रकार की योनियां हैं । अर्थात् उत्पत्ति होने के स्थान हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय जीवों के प्रत्येक के सात लाख योनियां हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय के दस लाख और साधारण वनस्पतिकाय अनंतकाय के चौदह लाख, दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले विकलेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक के दो-दो लाख नारक तिर्यंच और देवता के प्रत्येक के दो-दो लाख और मनुष्य के १४ लाख योनियां है। कुल मिला कर ये चौरासी लाख जीवयोनियां सर्वज्ञों ने कही हैं। एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर, पंचेन्द्रिय-जीव संज्ञी और असंज्ञी, दो तीन और चार इन्द्रियों वाले जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं । इस तरह जिनेश्वरदेवों ने जीवों के चौदह स्थान बताए हैं । जीवों के इन १४ स्थानों (संक्षिप्त भेदों) पर निम्नोक्त १४ मार्गणाद्वारों की भी प्ररूपणा सर्वज्ञों ने की है । १४ मार्गणाएं इस प्रकार हैं(१) गति, (२) इन्द्रिय, (३) शरीर, (४) योग, (५) वेद, (६) ज्ञान, (७) कषाय, (८) संयम, (E) आहार, (१०) दर्शन, (११) लेश्या, (१२) भव्यत्व, (१३) सम्यक्त्व तथा (१४) संज्ञी | जीव के चौदह गुणस्थान (१) मिथ्यात्व ( २ ) सास्वादन, (३) सम्यक्त्व- मिध्यात्व, (मिश्र) (४) अविरति सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति ( श्रावक ), (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) निवृत्तिबादर, (१) अनिवृत्ति बादर, (१०) सूक्ष्म सम्पराय, (११) उपशांतमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगी केवली और (१४) अयोगी केवली ; ये चौदह गुणस्थान हैं । (१) मिध्यादर्शन का उदय हो तब तक मिध्यादृष्टि गुणस्थानक कहलाता है, (२) मिध्यात्व का उदय न हो, किन्तु अनंतानुबन्धी कपाय की चौकड़ी (क्रोध, मान, माया, और लोभ) का उदय हो तो उत्कृष्ट छह आवलिका तक रहने वाला गुणस्थान सास्वादन गुणस्थानक कहलाता है । ( ३ ) सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का योग होने से तीसरा (मिश्र) गुणस्थानक कहलाता है; जो अन्तर्मुहूर्त होना है । (४) अप्रत्याख्यानावरणीय चौकड़ी के उदय होने पर अविरत सम्यग्दृष्टि होता है । ( ५ ) प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय में होने देशविरति (श्रावक ) गुणस्थान होता है । (६) संयम प्राप्त होने के बाद यदि प्रमाद सेवन करे तो उसका गुणस्थान प्रमत्त-संयत कहलाता है। (७) जो संयमी प्रमाद - सेवन नहीं करता, उसका गुणस्थान अप्रमत्त-संयत कहलाता है। छठा और सातवाँ ये दोनों गुणस्थान क्रमशः अन्तर्मुहूर्त समय वाले हैं। (८) जिसमें कर्मों की अपूर्व स्थिति का घात आदि करे, उसे अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थानक कहते हैं। इस गुणस्थान से दो श्रेणियां प्रारम्भ होती है. -
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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