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________________ ४८ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश करता था-आत्मन् ! तूने जिस प्रकार से पाप किये हैं. उसी प्रकार से पाप-फल को भोग ! जैसा बीज बोया है. वैसा ही तो फल मिलता है। यह तो बहुत ही अच्छा है कि ये लोग मुझ पर आक्रोश करके अनायास ही मुझं सकामनिर्जरा की सिद्धि का अवसर दे रहे हैं। मुझ पर आक्रोश करने वालों के दिल में हर्ष उमड़ता है तो भले ही उमड़े; मैं उनके कटुवचनों को प्रेम से सहन करता हूं। इस कारण मेरे कर्म कटते हैं । यह तो मेरे लिए आनन्द का कारण है। ये लोग मुझे परेशान करके सुखी होते हैं। उन्हें भी आज सुखी होने दो, क्योंकि संसार में सुख प्राप्ति हो तो दुर्लभ है। जैसे चिकित्सा करने वाले वैद्य क्षार से रोग मिटाते हैं; वैसे ही ये लोग मुझे कठोर वचन कह कर मेरे दुष्कर्म को क्षय करने का प्रयत्न करते हैं । इसलिये ये मेरे वास्तविक हितैषी मित्र हैं । अग्नि की जांच सोने पर चढ़े हुए मैल को दूर करके सोने को उज्ज्वल एवं चमकदार बना देती है, वैसे ही ये लोग भी मुझे मारपीट कर या आक्रोश आदि करके मेरी आत्मा को कर्ममुक्त बना कर उज्ज्वल बनाते हैं । मुझ पर प्रहार करके दुर्गतिरूपी कारागार में पड़े हए मुझ को बाहर खींच रहे हैं। क्या मैं ऐसे उपकारी पर कोप करू? ये तो अपना पूण्य दे कर भी मेरे पाप दूर कर रहे हैं । इससे अधिक अकारण महान् बन्धु और कौन होंगे ? संसार से मुक्त कराने में कारणभूत ऐसा वध या पीड़ा आदि मेरे लिये तो आनन्ददायी है। परन्तु इन गांव वालों के लिए मुझे दी जाने वाली यातना अनंत-संमार-वृद्धि की कारणरूप होगी, इसका मुझे दुःख है । इस संसार में कितने ही लोग दूसरों के आनंद के लिए अपने धन और तन तक का भी त्याग कर देते हैं तो इनके सामने तो इन्हें आनंद देने वाला आक्रोश या वध आदि कुछ भी नहीं है। मेरा किन्हीं लोगों ने तिरस्कार ही तो किया मुझे पीटा तो नहीं । कइयों ने मुझे पीटा जरूर पर, मुझे जीवन से रहित तो नहीं किया। कुछ लोग मुझे जीवन से मुक्त करने पर तुले हुए थे, परन्तु उन्होंने मुझे अपने परमबघु धर्म से तो दूर नहीं किया। अत: कल्याण हो इनका; सद्बुद्धि मिल इन्हें । श्रेयार्थी साधक को कोष करने वाले, दुर्वचन कहने वाले, रस्सी से बांधने वाले, हथियार से परेशान करने वाले, या मौत का कहर बरसाने वाले, इन सभी पर मंत्रीभाव रख कर समभाव से सहन करना चाहिए; क्योंकि कल्याण-मार्ग में अनेक विघ्न आते ही हैं।" इस प्रकार सुन्दर भावनाओं में डूबते-उतराते हुए मुनि अपने दुष्कृत कमों की निन्दा करने लगे। जसे अग्नि घास के सारे पूलों को जला देती है, वैसे ही दृढ़प्रहारी मुनि ने अपनी समस्त कर्मराशि को पश्चात्ताप की आग में जला दिया और अतिदुर्लभ, निर्मल केवलज्ञान प्राप्त करके अयोगिकेवली नामक नामक गुणस्थानक तक पहुंच कर मोक्षपद भी प्राप्त किया। जिस तरह दृढ़प्रहारी मुनि ने नरक का मेहमान बनना छोड़ कर योग के प्रभाव से अनन्त शाश्वत-सुख-रूप परमपद (मोक्ष) प्राप्त कर लिया; इसी तरह दूसरे को भी असंदिग्ध हो कर इस योग में प्रयत्न करना चाहिए। अब हम दूसरे उदाहरण दे कर योग के प्रति श्रद्धा में ही वृद्धि करते हैं : तत्कालत कर्म - कमठ-दुरात्मनः । गोप्नेचिलातिपुत्रस्य योगाय सहयन्न कः?॥१३॥ अर्थ कुछ ही समय पहले दुष्कर्म करने में अतिसाहसी दुरात्मा चिलातीपुत्र की रक्षा करने बाले योग की स्पृहा कौन नहीं करेगा?
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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