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________________ ६१३ अमनस्कताप्राप्ति के बाद योगो को होने वाली विविध उपलब्धियाँ अर्थ-- अविद्या केले के पौधे के समान है, चंचल इन्द्रियाँ उसके पत्ते हैं, मनरूपी उसका कन्द है। जैसे उसमें फल दिखाई देने पर केले के पेड़ को नष्ट कर दिया जाता है, क्योंकि उसमें पुनः फल नहीं आते, उसी प्रकार उन्मनीमावरूपी फल दिखाई देने पर अविधा भी पूर्णरूप से नष्ट हो जाती है, इस बाद दूसरे कर्म लगते नहीं हैं। मन को जीतने में अमनस्कता का ही मुख्य कारण है ; उसे कहते हैं अतिचञ्चलमतिसूक्ष्म, दुर्लक्ष्यं वेगवत्तया चेतः। अधान्तमप्रमादाद, अमनस्कशलाकया भिन्द्यात् ॥४१॥ अर्थ--मन अतिचंचल, अतिसूक्ष्म और तीन वेगवाला होने के कारण उसे रोक कर रखना अतिकठिन है, अतः मन को विश्राम दिये बिना प्रमादरहित हो कर अनमस्कतारूपी शलाका से उसका भेदन करना चाहिए। मन को मारने के लिए अमनस्वाता ही शलाकारूप शस्त्र है। अमनस्कता के उदय होने पर योगियों को क्या फल मिलता है, इसे बतलाने हैं विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डोनमिव प्रलीनमिव कायम् । अमनस्कोदय-समये, योगी जानात्यसत्कल्पम् ॥४२॥ अर्थ- अमनस्कता उदय हो जाने के समय योगी यह अनुभव करने लगता है कि मेरा शरीर पारे के समान बिखरा हुआ है, जल कर भस्म हो गया है, उड़ गया है. पिघल गया है और अपना शरीर अपना नहीं (असत्कल्प) है। समदरिन्द्रियभुजग रहिते विमनस्क-नवसुधाकुण्डे । मग्नोऽनुभवति योगो परामृतास्वादमसमानम् ॥४३॥ अर्थ-मदोन्मत्त इन्द्रियरूपी सों से मुक्त हो कर योगी उन्मनभावरूप नवीन अमृतकुण्ड में मग्न होकर अनुपम और उत्कृष्ट तत्त्वामृत के स्वाद का अनुमव करता है। रेचक-पूरक-कुम्भक-करणाभ्यासक्रम विनाऽपि खलु । स्वयमेव नश्यति मरुद, विमनस्के सत्ययत्नेन ॥४४॥ अर्थ - अमनस्कता की प्राप्ति हो जाने पर रेचक, पूरक, कुम्भक और आसनों के अभ्यास-क्रम के बिना भी अनायास हो वायु स्वयमेव नष्ट हो जाती है। चिरमाहितप्रयत्नरपि धतू यो हि शक्यते नैव । सत्यमनस्के तिष्ठति, स समीरस्तत्क्षणादेव ॥४५॥ अर्थ-जिस वायु को चिरकाल तक अनेक प्रयत्नों से भो धारण नहीं किया जा सकता ; उसी को अमनस्क होने पर योगी तत्काल एक जगह स्थिर कर देता है। जातेभ्यासे स्थिरताम्, उदयति विमले च निष्कले तत्त्वे। मुक्त इव भाति योगी. समूलमुन्मूलितश्वासः ।।४६॥ अर्थ-इस उन्मनोभाव के अभ्यास में स्थिरता होने पर तथा निर्मल (कर्मबाल
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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