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________________ पोगशास्त्र : एकादशम प्रकाश भगवान् पर छाया करता हुआ सुशोभित होता है। कामदेव की सहायता करने के अपने पाप का मानो प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए एक ही साथ छहों ऋतुएं उस समय प्रभु के समीप उपस्थित होती हैं। उस समय देवदुन्दुभि भी उनके सामने आकाश में जोर से घोषणा करतो हुई प्रगट होती है, मानो वह भगवान के शीघ्र निर्वाण के हेतु प्रयाणकल्याणक मना रहो हो । भगवान् के पास पांचों इन्द्रियों के प्रतिकूल विषय भी क्षणभर में मनोहर बन कर अनुकूल बन जाते हैं, क्योंकि महापुरुषों के सम्पर्क से किसके गुणों में वृद्धि नहीं होती? सभी को होती है । केश, नख आदि का स्वभाव बढ़ने का है, किन्तु सैकड़ों भवों के संचित कर्मों का छेदन देख कर वे भयभीत हो कर बढ़ने का साहस नहीं करते। भगवान् के आसपास सुगधित जल की वृष्टि करके देव धूल को शान्त कर देते हैं और खिले हुए पुष्पों को वर्षा से समय भूमि को सुरभित कर देते हैं। इन्द्र भक्ति से मंडलाकार करके तीन छत्र भगवान् पर धारण करते हैं। मानो वे गंगानदी के मंडलाकार तीन सोत किये हुए धारण हों। 'अयमेक एव नः प्रमुरित्याख्यातुं विडोजसौनमितः । अंगुलिदण्ड इवोच्चश्चकास्ति रत्नध्वजस्तस्य ॥४१॥ अस्य शरविन्दुदीधितिचारूणि च चामराणि धूयन्ते । वदनारविन्दसंपाति-राजहंसम्रमं दधति ॥४२॥ प्राकारास्त्रय उच्चः, विभान्ति समवसरणास्थतस्यास्य । कृतविग्रहाणि सम्यक-चारित्र निदर्शना नीव ॥४३॥ चतुराशावर्तिजनान्,युगपदिवानुग्रहीतुकामस्य । चत्वारि भवन्ति मुखान्यंगानि च धर्ममुपदिशतः ॥४४॥ अभिवन्धमानपा : सुरासुरनरोरगस्तवा भगवान् । सिंहासनमधितिष्ठति, भास्वानिव पूर्वगिरिशृङ्गम् ॥४॥ तेजः जसरप्रकाशिताशेषविक्रमस्य तदा । बैलोक्यचति-चिह्नमो भवति चक्रम् ॥४६॥ भवनपति-विमानपति-ज्योतिःपति-वाणव्यन्तराः सविधे। तिष्ठन्ति समवसरणे, जघन्यतः कोटिपरिमाणाः ॥४७॥ अर्थ-'यही एकमात्र हमारे स्वामी हैं इसे कहने के लिए मानो इन्द्र ने अपनी अंगुली ऊंची कर रखी हो, ऐसा रत्नजटित इन्नध्वज भगवान के आगे सुशोभित होता है। भगवान् पर शरदऋतु को चन-किरणों के समान उज्ज्वल चामर दुलाये जाते हैं, जब वे चामर मुलकमल पर माते हैं तो राजहंसों की-सी भ्रान्ति होती है। समवसरण में स्थित भगवान के चारों तरफ स्थिति ऊँचे तीन गढ़ (प्राकार) ऐसे मालूम पड़ते हैं ; मानों सम्यग्ज्ञान, पर्शन और चारित्र ने तीन शरीर धारण किये हैं। जब भगवान् समवसरण में चारों दिशाओं में स्थित लोगों को धर्मोपदेश देने के लिए विराजमान होते हैं, तब भगवान् के चार शरीर और
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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