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________________ २६८ योगशाल्न : एकादशम प्रपात संप्राप्य केवलज्ञान-पर्सने दुर्लभे ततो योगी। जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थं ॥२३॥ अर्थ-घातिको का भय होने पर ध्यानान्तर योगी दुर्लम केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करके यथावस्थित रूप में समस्त लोक और अलोक को जानने तथा देखने लगता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद तीर्थकर परमात्मा के अतिशय चौबीस श्लोकों के द्वारा कहते हैं : देवस्तदा स भगवान् सर्वज्ञः सर्वदश्यनन्ता णः। विहरत्यवनीवलय, सुरासुरनरोरगः प्रणतः ॥२४॥ वाग्ज्योत्स्नयाऽखिलान्यपि, विबोधयति भव्यजन्तुकुमुदानि । उन्मूलयति क्षणतो, मिथ्यात्वं द्रव्य-भावगतम् ॥२५॥ तन्नामग्रहमानाद्, अनादि-संसार-संभवं दुःखम् । भव्यात्मनामशेषं परिक्षयं याति सहसव ॥२६॥ अपि कोटीशतसंख्याः समुपासितमागताः सुरनराद्याः। क्षेत्रे योजनमाने, मान्ति तदाऽस्य प्रभावेण ॥२७॥ विदिवौकसो मनुष्याः तियंञ्चोऽन्येऽप्यमुष्य बुध्यन्ते । निजनिजभाषानुगतं, वचन धर्मावबोधकरम् ॥२८॥ आयोजनशतमुग्राः रोगाः शाम्यन्ति तत्प्रभाषेण । उदयिनि शोतमरीचाविव तापजः क्षितेः परितः ॥२९॥ मारीति-दुभितिवृष्ट्रय नावृष्टि डमर-वैराणि । न :न्यान् विहरति, सहनररमो तमांसीव ॥२०॥ अर्थ-केवलज्ञान होने के बाद सर्वज्ञ. सर्वदर्शी, अनंत गुणों के निधान देवाधिदेव अर्हन्त भगवान् अनेक सुर, असुर और नागकुमार आदि से बंदनीय हो कर पृथ्वीमंडल पर विचरते हैं । और विचरते हुए भगवान् अपनी वाणीकपी चन्द्रज्योत्स्ना (चांदनी) द्वारा भव्यजोवरूपी चन्द्रविकासी कमल (कुमुद) को प्रतिगोषित करते हैं और उनके द्रव्य-मिथ्यात्व और भाव-मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को क्षणभर में समूलतः नष्ट कर देते हैं। उनका नाम उच्चारण करने मात्र से अनादिकाल से संसार में उत्पन्न होने वाले भव्यजीवों के समय दुःख सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं । तथा उन भगवान् को उपासना के लिए आये हुंए शतकोटि देव, मनुष्य और तिर्यच आदि एक योजनमात्र क्षेत्र-स्थान में ही समा जाते। नके धर्मबोषक वचनों को देव, मनुष्य, पशु तथा अन्य जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। वे ऐसा समझते हैं कि भगवान् हमारी ही भाषा में बोल रहे हैं। भगवान् जिस-जिस क्षेत्र में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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