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________________ योगशास्त्र : एकादवम प्रकाश अर्थ-पूर्वकालिक अभ्यास से जीव के उपयोग से कर्मनिर्जरा होती है, इस कारण से; अपना शब्दार्थ को बहुलता या श्री जिनेश्वर के वचन से इसे अयोगियों का ध्यान कह सकते हैं। व्याख्या-जैसे कुम्हार का चाक डंडे बादि के बभाव में भी पूर्वाभ्यास से घूमता रहता है, उसी प्रकार मन बादि समस्त योगों के बंद होने पर भी अयोगियों के पूर्व-अभ्यास से ध्यान होता है। पद्यपि द्रव्य से उनके योग नहीं होते हैं, फिर भी जीव के उपयोगरूप भावमन का सद्भाव होता है, बता इसे योगियों का ध्यान कहा है अथवा ध्यानकार्य का फल कर्म-निर्जरा है और उसका हेतु ध्यान है । जैसे कि पुत्र न होने पर भी जो लड़का पुत्र के योग्य व्यवहार करता है, वह पुत्र कहलाता है। भव के बन्त तक रहने वाले भवोपनाही कर्मों की निर्जरा इसी ध्यान से होती है । अथवा एक शब्द के अनेक अर्थ होते है, जैसे कि 'हरि' शब्द के बनेक अर्थ होते हैं। हरि शब्द के सूर्य, बन्दर, घोड़ा, सिंह, इन्द्र, कृष्ण बादि बनेक बर्ष हैं । इसी प्रकार ध्यान मन्द के भी अनेक अर्थ होते हैं। जैसे कि ''ये चिन्तायाम्' काययोग-निरोधे' 'ध्ये अयोगित्वेऽपि' अर्थात् ध्यै धातु चिन्तन में, विचार या ध्यान में, कायायोग के निरोध बर्य में और अयोयित्व अर्थ में भी कहा गया है। व्याकरणकारी और कोषकारों के मतानुसार निपात तथा उपसर्ग के योग से धातु के अनेक अर्थ होते हैं। इसका उदाहरण यही पाठ है। बथवा बिनागम में भी अयोगी-केवली-अवस्था को भी ध्यान कहा है। कहा भी है कि 'बागम-युक्ति सम्पूर्ण श्रद्धा से अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्ता स्वीकार करने के लिए प्रमाणभूत है।' इतना कहने के बाद भी शुक्लध्यान के चार भेदों को विशेषरूप से समझाते हैं आये श्रुतावलम्बन-पूर्वे पूर्व तार्थ-सम्बन्धात् । पूर्वधराणां छपस्थयोगिनां प्रायशो ध्याने ॥१३॥ अर्थ-शुक्लध्यान के चार भेदों में से प्रथम के दो ध्यान पूर्वधरों एवं छपस्ययोगियों को भूतमान के अवलम्बन से प्रायः पूर्व भूत के अर्थ से सम्बन्धित होते हैं। प्रायशः कहने का आशय यह है कि अपूर्वधर माषतुष मुनि और मदेवी भी शुक्लध्यानियों में माने जाते हैं। तया सकलालम्बन-विरह-प्रपिते है त्वन्तिमे समुद्दिष्टे । निर्मल-फेवल टि-जानानां क्षीणदोषाणाम् ॥१४॥ अर्थ-शक्लध्यान के अन्तिम बो ध्यान समस्त मालम्बन से रहित होते हैं; समस्त दोषों का भय करने वाले निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन वाले योगियों को तत्र अताद् तत्वकम्, अर्थमर्थात् प्रणम् । शब्दात् पुनरप्यर्थ योगा योगान्तरं च सुधीः ।।१५।। संक्रामत्यविलम्बितम्, अपमाति यथा किल ध्यानी। व्यावर्तते स्वयमसो, पुनरपि तेन प्रकारेण ॥१६॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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