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________________ योगशास्त्र: अष्टम प्रकाश ततो नोरागमषम्, अमोहं सर्वदर्शिनम् । सुराच्यं समवसृतो, कुर्वाणं धर्मदेशनाम् ॥१६॥ ध्यायन्नात्मानमेवेत्थम् अभिन्न परमात्मना । लभते परमात्मन, ध्यानो निधूत-कल्मषः ॥१७॥ अर्थ-अथवा नाभिकन्द के नीचे आठ पंखुड़ी वाले एक कमल का चिन्तन करना । इस कमल की आठ पंखुड़ियों में से प्रथम पंखुड़ी पर मनोहर केसराओं रूप सोलह स्वरावली का चिन्तन करना, शेष सात पंखुड़ियों में क्रमशः सात वर्गों की स्थापना करना । वह इस प्रकार-१-क, ख, ग, घ, क, २-च, छ, जमन, ३-ट. ठ, 3. ढ, ण, ४-त, थ, द, ध, न, ५-प, फ, ब, म म, ६-य, र, ल, ब, ७ -श, ष, स, है। इन आठों पंखुड़ियों को सधियों में ही-कार-रूप सिद्धस्तुति की स्थापना करना, और सभी पंखुड़ियों के अग्रभाग में 'ह्रीं स्थापित करना। उस कमल के मध्यमाग में प्रथम वर्ण 'अ' और अन्तिम बणह' रेफ' कला और बिन्दु सहित हिम के समान उज्ज्वल अह को स्थापना करनी चाहिए । इस 'अहं' का मन में स्मरण आत्मा को पवित्र करता है। अहं' शब्द का उच्चारण प्रथम मन में हस्वनाद से करना चाहिए। बाद में दीर्घ, फिर प्लुत, फिर सूक्ष्म, और तसूक्ष्मनाद से उच्चारण करना चाहिए। तदनन्तर वह नाद नाभि, हृदय और, कण्ठ को घटिकादि, गांठों को भेदता हा उन सब के बीच में से हो कर आगे चला जा रहा है। ऐसा चिन्तन करे। उसके बाद यह चिन्तन करे कि उस नादबिन्दु से तपो हुई कला में स निकलने वाले दूध के समान उज्जवल अमृत को तरंगों से अन्तरात्मा प्लावित हो रही है। फिर अमृत के एक सरोवर की कल्पना करे और उस सरोवर से उत्पन्न हुए सोलह पंखुड़ी वाले कमल का चिन्तन करे। उसके अन्दर अपने आप को स्थापित करके उन पखुड़ियों पर क्रमशः सोलह विद्यादेवियों का चिन्तन करे। बाद में देदीप्यमान स्फटिकरन की सारी में से मरते हए दूध के सदृश उज्ज्वल अमृत से अपने को दीर्घकाल तक सिंचित होते हुए मन में चिन्तन करे। उसके बाद शुद्धस्फटिकरत्न के समान निर्मल, मंत्रराज के प्रथम अभिधेय पद महत' परमेष्ठी का मरतक में ध्यान करे। यह ध्यान इतना प्रबल और प्रगाढ़ होना चाहिए कि इसके चिन्तन के कारण बार-बार सोऽहं सोऽहं' (अर्थात् 'जो वीतराग है, वही मै हूं,) इस प्रकार को अन्तध्वनि करता हुआ ध्याता निःशंकमाव से आत्मा और परमात्मा को एकरूपता का अनुपम करे । तदनन्तर वह वीतराग, बीतष, निर्मोह, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, देवों से पूज्य, समवसरण में स्थित होकर धर्मदेशना करते हुए परमात्मा के साथ अपना अभिन्नरूप मान कर ध्यान करे। इस तरह का ध्यान करने वाला ध्याता समस्त पापकर्मो का नाश करके परमात्मत्व को प्राप्त कर लेता है। और भी दूसरे प्रकार से पदमयी देवता की ध्यानविधि पांच श्लोकों द्वारा बताते हैं यद्वा मन्त्राधिपं धीमान् अधिो -रफ तम् । कलाबिन्दुसमाकान्तम् अनाहतयुतं तथा ॥१८॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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