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________________ योगशास्त्र : सप्तम प्रकाश अजर-अमर करने वाले, योगामृत-रसायन का पिपासु है, राग-ब-मोह आदि दोष जिस पर हावी नहीं है, कोध आदि कषायों से जो अदूषित है, मन को जो बात्माराम में रमण कराता है, समस्त कार्यों में लिप्त रहता है, कामभोगों से विरक्त रहता है, अपने शरीर के प्रति भी निःस्पृह रहता है, संवेगरूपी सरोवर में भलीभांति इबा रहता है, शत्रु और मित्र में, सोने मोर पाषाण में, निदा और स्तुति में, मान एवं अपमान आदि में सर्वत्र समभाव रखता है। राजा और रंक दोनों पर एकसरीखी कल्याण-कामना रखता है। सर्वजीवों के प्रति जो करणा-शील है, सांसारिक सुखों से विमुख है, परीषह और उपसर्ग आने पर भी सुमेहको तरह निष्कम्प रहता है, जो चन्द्रमा के समान मानन्दवायी है और वायु की भांति नि:संग(अनासक्त, अप्रतिबविहारी) है; वही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध धाता ध्यान करने योग्य हो सकता है। अब भेदसहित ध्येय का स्वरूप बताते हैं - पिण्डस्थं च पदस्थं च, रूपस्थं, रूपवजितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥८॥ अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों ने ध्यान का आलम्बनस्वरूप ध्येय चार प्रकार का माना है-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत। यहाँ पिंड का अर्थ शरीर है। उसका आलम्बन ले कर टिकाया जाने वाला ध्यान पिण्डस्य ध्यान है । ध्येय को धारणा के भेद से कहते हैं पार्थिवी स्यां याग्नेयी, मारती वारुणी तथा । तत्वमः पञ्चमी चेति, पिण्डस्ये पंच धारणा ॥९॥ अर्थ-पिण्डस्य ध्येय में पांच धारणाएं होती हैं, १ पार्थिवो, २. आग्नेयी. ३. मारुती, ४. वारुणी और ५. तत्त्वमू।। उसमें पार्थिवी धारणा को तीन श्लोकों से कहते हैं तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत्, क्षीराब्धि तत्र चाम्बुजम् । सहनपत्रं स्वर्णाभ, जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ॥१०॥ तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिगगप्रभांचिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणां च, कणिका परिचिन्तयेत् ॥११॥ श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम् । आत्मानं चिन्तयेत् तत्र, पार्थिवीधारणेत्यसौ ॥१२॥ वर्ष-एक रन्जु-प्रमाण विस्तृत तिर्यग्लोक है। इसके बराबर लम्बे-चौड़े और. समुद्र का चिन्तन करना, उसमें एक लाख योनन बम्बूद्वीप के समान स्वर्ण-कान्ति-युक्त एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का चिन्तन करना चाहिए। उस कमल के मध्यमाग में केसराएं है और उसके अन्दर देदीप्यमान पीली प्रभा से युक्त और सुमेरुपर्वत के समान एक लाख योजन ऊंची कणिका-(पीठिका) का चिन्तन करना। उस कणिका पर एक उज्ज्वल
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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