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________________ ५६२ योगशास्त्र: षष्ठ प्रकाश करने से शरीर में पीड़ा होती है। पूरक, कुंभक और रेचक-क्रिया करने में परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने से मन में संक्लेश होता है। अतः चित्त में संक्लेशकारक होने से प्राणायाम मुक्ति में विघ्नकारक है। व्याख्या-यहाँ शका होती है कि-'प्राणायाम करने से शरीर में पीड़ा और मन में चपलता उत्पन्न होती है तो दूसरा कौन-सा मार्ग है, जिससे शरीर में पीड़ा और मन में चपलता न हो ?' इसका उत्तर देते हैं कि 'प्राणायाम के पश्चात् कितने ही आचार्य प्रत्याहार बतलाते हैं ; वह दूषित नहीं है। उसे कहते हैं इन्द्रियः सममाकृष्य, विषयेभ्यः प्रशान्तधीः । धर्मध्यानकृते तस्मात् मनः कुर्वोत निश्चलम् ॥६॥ अर्थ-प्रशान्त-बुद्धि साधक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शरूप पांचों विषयों से इन्द्रियों के साथ मन को हटा कर धर्मध्यान के लिए अपने मन को निश्चल करें। व्याख्या-बाह्य विषयो से इन्द्रियों के साथ मन को हटा लेना प्रत्याहार कहलाता है। अभिधान चिन्तामणिकोश में हमने बताया है- "प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः ।" अर्थात् नेत्रादि इन्द्रियों को रूप मादि विषयों से हटाना प्रत्याहार बहलाता है। मन को निश्चल बनाने की बात प्रत्याहार के बाद धारणा बताने का उपक्रम करने हेतु कही है । बब धारणा के स्थान बताते हैं नाभि-हृदय-नासाप्रभाल-घ्र-तालु-दृष्टयः । मुखं कणो शिरश्चेति, ध्यान-स्थानान्यकीर्तयन् ॥७॥ अर्थ-नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भ्र कुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक ; ये सब ध्यान करने के लिए धारणा के स्थान बताए हैं। इन्हें ध्यान के निमित्तभूत धारणा के स्थान समझने चाहिए । अब धारणा का फल कहते हैं । एषामेकत्र कुत्रापि स्थाने स्थापयतो मनः। उत्पद्यन्ते स्वसंवित्तेः बहवः प्रत्ययाः किल ॥८॥ अर्थ-ऊपर कहे हए स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर अधिक समय तक मन को स्थापित करने से निश्चय ही स्वानुभवज्ञान के अनेक प्रत्यय उत्पन्न होते हैं । प्रत्ययों के सम्बन्ध में आगे बताएगे। इस प्रकार परमाहत भीकुमारपाल राजा को निकासा से प्राचार्यश्री हेमचनाचार्य-सूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद्' नामक पट्टबड अपरनाम 'योगसास्व' का स्वोपविवरणसहित षष्ठ प्रकाश सम्पूर्ण हुना।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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