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________________ द्विविध-उपश्रुति से तथा शनैश्चर से कालनिर्णय कर्णोद्घाटन - संजातोपश्रुत्यन्तरमात्मनः । कुशलाः कालमासन्नम् अनासन्नं च जानते ॥१६६॥ अर्थ-अथवा विद्वानपुरुषां को उपश्रुति से आयुष्य-काल जान लेना चाहिए। उसकी विधि इस प्रकार है :-जिस दिन भद्रा आदि अपयोग न हो, ऐसे शुभदिन में सोने के समय अर्थात् एक प्रहर रात्रि तीत हो जाने के बाद शयन काल में उत्तर, पूर्व या पश्चिम दिशा में प्रयाण करना । जाते समय पांच नवकारमन्त्र से या सूरिमन्त्र से अपने दोनों कान पवित्र करके किसी का शब्द कान में सुनाई न दे इस प्रकार बन्द करके घर से बाहर निकले। और शिल्पियों (कारीगरों) के घरों की ओर चौक अथवा बाजार की ओर पूर्वोक्त विशाओं में गमन करे । वहाँ जाकर भूमि की चन्दन से अर्चना करके सुगन्धित चूर्ण, अक्षत आदि मल कर सावधान हो कर कान खोल कर लोगों के शब्दों को सुने। वे शब्द दो प्रकार के होते हैं १-अर्थान्तरापदेश्य और २ स्वरूप-उग्ध ति । प्रथम प्रकार का शब्द सुना जाए तो उसका अभीष्ट अर्थ प्रकट न करे और दूसरा स्वरूप-उपश्रति अर्थात् जैसा शब्द सुना हो, उसी अर्थ को प्रकट करना । अर्थान्तरापदेश्य उपश्रुति का अर्थ विचार तक) करने पर ही जाना जा सकता है, जैसे कि 'इस मकान का स्तम्भ पांच-छह दिनों में, पांच-छह पखवाडों में, पांचछह महीनों में या पांच-छह सपों में टूट जायगा, अथवा नहीं टूटेगा, यह स्तंभ अतिमनोहर है, परन्तु यह छोटा है, जल्दी ही नष्ट हो जायगा।" इस प्रकार को उपश्रुति 'अर्थान्तरापदेश्य' कहलाती है । यह सुन कर अपनी आयु य का अनुमान लगा देना चाहिए। जितने दिन, पक्ष, महोने, वर्ष में स्तम्ग टूटने की ध्वनि सुनाई दी हो, उतने ही दिन आदि में आयु की समाप्ति समझना चाहिए : दूमरी स्वरूप-उपश्रुति इस प्रकार होती है-'यह स्त्री इस स्थान से नहीं जायगी, यह पुरुष यहां से जाने वाला नहीं है अथवा हम उसे जाने नहीं देगे और वह जाना भी नहीं चाहता था अमुक बड़ा से जाना चाहता है, मैं उसे भेजना चाहता हूं, अतः अब वह शीघ्र ही चला जाएगा, यह स्वरूप उपब ति कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि जाने की बात सुनाई दे तो आयु का अन्त निकट है और रहने की बात सुने तो मृत्यु अभी नजदीक नहीं है । इस प्रकार कान खोल कर स्वयं सुनी हुई उपश्रुति के अनुसार चतुर पुरुष अपनी मृत्यु निकट या दूर है, इसे जान लेते हैं। अब शनैश्चर पुरुष मे कालज्ञान का उपाय चार श्लोकों के द्वारा कहते हैं शनिः स्याद् यत्र नक्षत्रे, तद् दातव्यं मुखे ततः। चत्वारि दक्षिणे पाणी, श्रोणि त्रीणि च पादयोः । १६७॥ चत्वारि वामहस्ते तु क्रमशः पंच वक्षसि । त्रीणि शोर्षे शो , गुह्य एकं शनौ नरे ॥१९८1. निमित्तसमये तन, पतितं स्थापना-क्रमात् । जन्मस नामऋक्ष वा गुादेशे भवेद् यदि ।। १९९।।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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