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________________ कारुण्य और माध्यस्य्यभावना का स्वरूप या दुःखी होते हैं । इस प्रकार जो विविध दुःखों से पीड़ित है, अथवा जो सबसे भयभीत रहने वाले अनाथ, रंक, बालक, बूढ़े, सेवक आदि है, वैरियों से पराजित, रोग से ग्रस्त, अथवा मृत्युमुख में पहुंचे हुए जो जीने की प्रार्थना और प्राणों की याचना करते हुए प्राण-रक्षा चाहते हैं। इस प्रकार के दीनादि, जिन्होंने कुशास्त्र की रचना की है, वे बेचारे असत्यधर्म की स्थापना करके किस तरह दुःख से विमुक्त हो सकते हैं ? भगवान् महावीर को मरीचि के भव में उन्मार्ग का उपदेश देने से कोटाकोटी सागरोग्म काल तक भवभ्रमण करना पड़ा, तो फिर अपने पापों की प्रतिकारशक्ति से रहित दूसरों की क्या गति होगी? विषयों को उत्पन्न करने, उनका उपभोग करने, उनमें ही दत्तचित्त रहने और अनन्तभवों में अनुभत विषयों में अब तक अतृप्त मन वाले उन भवाभिनन्दी आत्माओं को प्रशमामृत से तृप्ति हो कर वीतरागदशा कैसे प्राप्त हो सकती है ? बाल-वृद्धादि, जिन का चित्त विविधभय के कारण भयभीत बना हुआ है, उन्हें भय से एकान्तिक आत्यन्तिक मुक्त कैसे बनाया जा सकता है ? तथा मृत्युमुखप्राप्त तथा अपने धन, मित्र, स्त्रीपुत्रादि के वियोग को सम्मुख देखते हुए एवं मरणान्तिक कष्टानुभव करते हुए जीवों पर सकलभयरहित श्रीजिनवरप्रभु के वचनामृतों को कैसे छिड़का जाय? और कैसे उन्हें जन्म-जरा-मृत्यु आदि से निर्भयस्थान प्राप्त कराया जाय ? इस प्रकार दुःख का प्रतीकार करने की बुद्धि जागना; ऐसा इरादा करना, करुणाभावना है। इसमें दुःख का साक्षात् प्रतीकार करना नहीं है; क्योंकि प्रतीकार करने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में नहीं होती; इस कारण यहाँ वैसी प्रतीकारबुद्धि का जागना ही करुणाभावना बताई है। यदि अशक्यप्रतीकार की करुणा बुद्धि हो, तब तो 'सभी जीवों को संसार से मुक्त करने के बाद मैं मोक्ष में जाऊंगा' ; इस प्रकार कहना वास्तविक करुणा नहीं, अपितु केवल वाणीविलास है । समस्त संसारी जीवों के लिए ऐसा होना अशक्य है । तथा अपने लिए मुक्ति में पहुंचने का कार्य भी असम्भव है। एक तो स्वयं के संसार का उच्छेद होना और फिर समस्त ससारी जीवों को मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है। इसलिए यह तो भोले लोगों को ठगना है। यह बुद्ध की करुणा है। अतः उपर्युक्त करुणा करने हेतु हितोपदेश देना, देशकाल की अपेक्षा से अन्न, जल, आश्रय, वस्त्र, औषध आदि दे कर दु:खितों पर उपकार करना भी करुणाभावना है। अब माध्यस्थ-भावना का स्वरूप कहते हैं ऋरकर्मसु निःशंकं, देवता-गुरु-निन्विषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥१२१॥ अर्थ-निःशंकता से कर कार्य करने वाले, बेब-गुरु को निन्दा करने वाले और आत्मप्रशंसा करने वाले जीवों पर उपेक्षा रखना माध्यस्थ्यभावना है। व्याख्या--अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले, मदिरा आदि का पान करने वाले, परस्त्री सेवन आदि करने वाले, ऋषिहत्या, बाल-हत्या, स्त्रीहत्या, गर्भहत्या आदि करकर्म करने वाले, और पाप से भय नहीं खाने वाले उपेक्षा के योग्य हैं । कई व्यक्ति कितनी ही दफा पाप करने के बाद पश्चाताप करके संवेगप्राप्त हैं; वे उपेक्षा करने के योग्य नहीं हैं। इसीलिए कहा है कि चौतीस अतिशय वाले श्री वीतराग देव, तथा उनके कहे अनुसार अनुष्ठानों का पालन करने वाले और उपदेश देने वाले गुरु महाराज की राग, द्वेष या अज्ञान के वश अथवा पहले किसी के बहकाने से निन्दा करने वाले इस प्रकार के दोष होने पर भी किसी प्रकार से वैराग्यदशा प्राप्त कर अपने दोष देखने वाले हों; वे उपेक्षा करने योग्य नहीं हैं। इसलिए कहा है कि सदोष, अपनी बात्मा की प्रशंसा करने वाले अपनी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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