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________________ यान, उसका स्वरूपबीर भेद करना होता है। यानी वह योगों के निरोध को ही ध्यानस्प जानता है। सयोगी केवली को योग के निरोप समय में ध्यान होता है, इससे अलग ध्यान नहीं होता। सयोगी केवली कुछ कम पूर्वकोटी तक मन, वचन और काया के योग-(व्यापार) युक्त ही विचरते हैं। निर्वाण के समय में योग का निरोध करते हैं ।" यहाँ शंका करते हैं कि 'छद मस्थ योगी को यदि अंतमुहर्तकाल तक ध्यान की एकाग्रता रहे तो उसके बाद क्या स्थिति होती है ? उसे कहते है मुहूर्तात् परतश्चिन्ता, यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । बह्वर्थसंक्रमे तु स्याद् दीर्घाऽपि ध्यान-सन्ततिः॥११॥ अर्थ-एक पदार्थ में मुहर्तकाल तक ध्यान व्यतीत होने के बाद यह ध्यान स्थिर नहीं रहता, फिर वह चिन्तन करेगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान करेगा, परन्तु एक पदार्थ में एक मुहर्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकता, क्योंकि उसका ऐसा हो स्वभाव है। इस तरह एक अर्थ से दूसरे अर्थ का आलम्बन करता है, और तीसरे का आलंबन ले कर ध्यान करता है, फिर चौथे को, इस तरह लम्बे समय तक ध्यान की परम्परा चालू रहती है। मुहर्तकाल के बाद प्रथम ध्यान समाप्त होता है, बाद में दूसरे अर्थ का आलम्बन करता है इस तरह ध्यान की वृद्धि करने के लिए भावना करनी चाहिए। उसी बात को कहते हैं मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कतुं, तद्धि तस्य रसायनम् ॥११७॥ अर्थ-धर्मध्यान टूट जाता हो तो मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, और माध्यस्य भावना में मन को जोड़ देना चाहिए। क्योंकि जरा से जर्जरित शरीर वाले के लिए जैसे रसायन उपकारी होता है, वैसे ही धर्मध्यान के लिए मंत्री आदि भावना पुष्टरूप रसायन हैं। व्याख्या-दोनों ओर से स्नेहभाव को मंत्री कहते हैं। अतः जगत के सारे जीवों पर स्नेह रखना मैत्रीभावना है, अपने से अधिक गुणीजनों पर प्रसन्नता रखना, उन्हें देख कर चेहरा प्रफुल्लित हो जाना; उनके प्रति हृदय में भक्ति (अनुराग) प्रगट करना प्रमोदभावना है। दीन, दु:खी, अनाथ, विकलांग एवं अशरण जीवों के प्रति करुणा करना करुणाभावना अथवा अनुकंपाभावना है। राग और ष दोनों के मध्य में रहना माध्यस्थ्य-भावना है। अर्थात् राग-द्वेष-रहित भावना माध्यस्थ्य या उपेक्षाभावना है। इन चार भावनाओं को विभिन्न आत्माओं के साथ किसलिए जोड़ें ? इसके उत्तर में कहते हैं यदि धर्मध्यान टूट जाता हो तो उसे जोड़ने के लिए जैसे वृद्धावस्था में निर्बल शरीर को रसायन-गति प्रदान करती है वैसे ही मैत्री आदि चार भावनाएं भी टूटे हुए धर्मध्यान को पुष्ट करती हैं।" इन चार भावनाओं में से प्रथम मैत्री का स्वरूप कहते हैं मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिमंत्री निगद्यते ॥११॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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