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________________ ४८८ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश बिना इस चराचर विश्व का आधाररूप पृथ्वी जो ठहरी हुई है, इसमें धर्म के शतिरिक्त अन्य कोई भी कारण नहीं है। सूर्याचन्द्रमसाविति विश्वोपकृतिहेतवे । उदयेते जगत्यस्मिन्, नूनं धर्मस्य शासनात् ॥१९॥ ___ अर्थ-यह सूर्य और चन्द्रमा जगत् के परोपकार के लिए इस लोक में प्रतिदिन उदित होते रहते हैं, इसमें निश्चय ही धर्म के शासन का प्रभाव है। अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा। अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकवत्सलः ॥१०॥ ___ अर्थ-जिसका इस संसार में कोई बन्धु नहीं है उसका धर्म हो बन्ध है। क्योंकि विपत्ति में सहायता करने वाला, उससे पार उतारने वाला धर्म बन्धु ही है। जिसका कोई मित्र नहीं है उससे प्रेम करने वाला धर्म ही मित्र है। जिसका कोई नाथ नहीं है, उसका योग और क्षेम करने वाला धर्म ही नाथ है। कहा है कि 'जो योग और क्षेम करने वाला हो, वही नाय कहलाता है। इसलिए जगत में अद्वितीय वत्सल यदि कोई है तो वह धर्म ही है । गाय के द्वारा बछड़े को स्नेह से जो सहलाया जाता है, उसे वात्सल्य कहते हैं, उसके समान सारे जगत् के लिए प्रीति (वत्सलता) का कारण होने से धर्म भी वत्सल है। अब अनर्थफल की निवृत्ति होने से सामान्य व्यक्ति भी धर्म करना चाहते हैं । अत: धर्म का फल कहते हैं रक्षो-यक्षोरग-व्याघ्र-व्यालानलगरादयः । नापकतु मलं तेषां यधर्मः शरणं श्रितः ।।१०१।। अर्थ-जिन्होंने धर्म का शरण स्वीकार किया है, उनका राक्षस, यक्ष, सर्प, व्याघ्र, सिंह, अग्नि और विष आदि अपकार (नुकसान) नहीं कर सकते । अब मुख्य अनर्थ रोकने के लिए और उत्तम पदार्य की प्राप्तिरूप धर्म का फल कहते हैं धर्मो नरकपाताल-पाताववति देहिन. । धर्मो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञवैभवम् ॥१०२॥ अर्थ-धर्म जीवों को नरकरूपी पाताल में गिरने से बचाता है। धर्म अनुपम सर्वज्ञ का बैमव भी प्राप्त कराता है। व्याख्या-धर्म के शेष फल तो आनुषंगिक समझने चाहिए। इसके सम्बन्ध में आन्तरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं-'पूर्वोक्त दस प्रकार के यतिधर्म को मिथ्यादृष्टि ने नहीं देखा (माना); और यदि किसी ने कभी कहा है तो केवल वाणी से वर्णन किया है, आचरण से आचरित करके नहीं कहा । किसी भी तत्व का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति की वाणी से होता है, किसी के मन में भी होता है, परन्तु उसे बाचरण में ला कर क्रियान्वित करता हो, उसे समझना कि वह जिनधर्म का पाराधक है। वेदशास्त्र में परवश पुद्धि वाले और उनके सूत्रों को कण्ठस्थ करने वाले तत्व से धर्म को लेशमात्र भी नहीं जानते ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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