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________________ ४८४ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश इसी प्रकार प्रेक्षा-संयम है, बीज, जन्तु, हरी वनल्पति मादि से रहित स्थंडिलभूमि आंख से देख कर तथा शयन, आसन आदि देख कर करना। सावधव्यापारयुक्त गृहस्थ को प्रेरणा न करना; सावद्यकार्यों के प्रति उपेक्षा करना उपेक्षा-संयम है। आंख से दृष्टि-प्रतिलेखन करना, रजोहरणादि से भूमि पर शयन-आसनादि का प्रमार्जन करना तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय पृथ्वी पर चलते हुए सचिन, अचित्त या मिश्र पृथ्वी की पूल परों में लगी हो तो उसका प्रमार्जन करना-प्रमार्जनसंयम है। दोपयुना, अनपणीय आहारपानी ही या अनुपकारक वस्त्र-पात्र आदि जीवों से संसक्त हों तो ऐसे अन्नजल-बग्त्रादि को निरवध निर्जीव स्थान पर विवेकपूर्वक परठना (डाल देना) परिष्ठापनसंयम है। किसी की हानि, अभिमान, ईर्ष्या आदि स युक्त मन रो निवृन हो कर उसे धर्मध्यान आदि मे प्रवृत्त करना मन.संयम है । हिगाकारी, कटोर, काट श्रादि सावधवचनों से निवृत्त हो कर शुभमाषा मे वचन की प्रवृत्ति करना वचनसंयम है। काया से दोटना. भागना. कूदना, निरर्थक भटकना आदि मावद्यप्रवृनियों का त्याग कर शुभत्रिया में प्रवृत्ति करना कायासंयम है । इसीतरह प्राणातिपातनिवृत्तिरूप सयम भी १७ प्रकार का है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति दो, तीन, चार और पाच इन्द्रियों वाले जीव, अजीव, प्रेक्षा, उपेक्षा, प्रमार्जना, प्रतिलेखना, पारष्टापना, मन, वचन और काया का सयम । (२) सूनृत-अर्थात् प्रिय सन्यवनन बोलना । कठोरता, पैशुन्य (चगली), असभ्यता, चपलता, या जीभ दवा कर, रुक-रुक कर, हवालाने हुए, शी व्रता से, संदेहयुक्त, ग्राम्य, रागद्वे पयुक्त, कपट-पापसहित, निन्दा आदि वचनो से बच कर माधुर्य, दार, स्पष्ट, उत्तम पदार्थ प्रगट करने वाला, श्रीअरिहन्तप्रभु के कथनानुमार, मार्थक लोकव्यवहार प्रचलित, भावार्थ ग्राह्य, देशकाल नुरूप, संयमयुक्त, परिमिताक्षरयुक्त, हिवारी गुणों में पूर्ण. वाचना-पृचना आदि के समय पूछने पर उत्तर देने के लिए, मृणावादरहित वचन बोलना मूनत (सत्य) है । ( शौच-अपने संयम पर पापकर्मरूपी लेप न लगने देना, शौच है। उमम भी अदत्तादानन्याग या लोभाविष्ट हो कर परधनराणच्छात्यागरूप अर्थशौच मुख्य है। लौकिक ग्रन्थों में भी कहा है.--'मभः शनों में अर्थशौच महान् हैं। जिनका जीवन अर्थ के मामले में शुचि । पवित्र) है, वह शुचि है । मिट्टी या मन से हुई शुचि (शुद्धि) वास्तविक शुचि नहीं है।" इस प्रकार का अशुचिमान जीव इस लोग या परलो मे भावमलरुपनों का मचय करता है। उसे उपदेश दिया जाय, फिर भी वह अपने कल्याण की बात नही मानता। इसलिए यहाँ अदत्तादानत्यागरूप शौचधर्म समझना चाहिए। (४) ब्रह्मचर्य-नौ प्रकार की ब्रह्मनर्यगुप्ति से युक्त उपस्थ-संयम, गुप्तेन्द्रिय-विषयक संयम ब्रह्मचर्य है। 'भीमसेन' को संक्षेप में 'भीम' नाम से पुकारा जाता है, वैसे ही यहां 'ब्रह्मचर्य' को 'ब्रह्म' कहा है। ब्रह्मचर्य महान होने से आत्मरमणना के लिए गुरुकुलवास का सेवन करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य अब्रह्म की निवृत्तिरूप भी है। (५) आकिंचन्य--जिसके पाम कुछ भी द्रव्य न हो, वह अकिंचन होता है, उसका भाव आकिंचन्य है। आकिंचन्यधर्म वाले शरीरधारी भूनि उपलक्षण से शरीर, धर्मोपकरण आदि के प्रति या सांमारिक पदार्थों के प्रति निर्ममत्व होते हैं। वे निष्परिग्रही हो कर अपने लिए भोजन पानी आदि भी संयममात्रा के निर्वाह के लिए ही लेते हैं। जैसे गाड़ी के पहिये की गति ठीक रखने के लिए उसकी धुरी में तेल डाला जाता है, वैसे ही शरीररूपी गाड़ी की गति ठीक रखने के लिए वे मूर्छारहित हो कर
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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