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________________ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश आश्रव के निरोधोपाय बताते हैं क्षमया मृदुभावेन, ऋजुत्वेनाऽप्यनीहया। क्रोधं मानं तथा माया, लोभं रून्ध्याद् यथाक्रमम् ।'८२॥ अर्थ-संयमप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वाला योगी क्षमा से कोष को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को रोके। कषायों के प्रतिपक्षीभावों से क्षय बता कर अब विषयों का संवर कहते हैं असंयमकृतोत्सेकान्, विषयान् विषसनिभान् । निराकुर्यादखण्डेन, संयमेन महामतिः ॥३॥ अर्थ-इन्द्रियों पर असंयम से प्रबल बने हुए, विषतुल्य विषयों को महाबुद्धिमान मुनि अखंग-संयम से रोके। भावार्थ-विषयसुख भोगते समय मधुर लगता है, लेकिन परिणाम में विष के समान होता है। अतः स्पर्शादिविषयों में उन्मत्त बनी हुई इन्द्रियों के सामर्थ्य को अखंड संयम से ही रोका जा सकता है। अब योग, प्रमाद और अविरति के प्रतिपक्ष को कहते हैं-- तिसृभिगुप्तिभिर्योगान्, प्रमादं चाप्रमादतः। सावधयोगहानेनाविरति, चापि साधयेत् ॥४॥ अर्थ-मन, बचन और काया के योग (व्यापार) को मन, वचन और काया की रक्षा रूप तीन गुप्तियों द्वारा, मद्यपान, विषय-सेवन, कषाय, निद्रा, विकथारूप पांच प्रकार के अथवा अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर, योगों की दुष्प्रवृत्तिरूप माठ प्रकार के प्रमाव के प्रतिपक्षी अप्रमाद को सिद्ध करे और सावध (पाप) व्यापार वाले योग को त्याग कर अविरति को विरति से सिद्ध करे। अब मिथ्यात्व एवं आत्तं-रौद्रध्यान के प्रतिपक्षी कहते हैं सद्दर्शनेन, मिथ्यात्वं शुभस्थैर्येण चेतसा । विजयेतात-रौद्रे च संवरायं कृतोद्यमः ॥१५॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त करे, धर्मध्यान-शुक्लध्यानरूप चित्त की स्थिरता से आर्तरोद्रध्यान पर विजय प्राप्त करे । कौन करे? संबर के लिए उद्यम करने वाला योगी करे। इस सम्बन्धी आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं व्याख्या-जिस घर के चारों तरफ राजमार्ग हों और बहुत से दरवाजे हों, और वे बंद नहीं किए गए हों तो उनमें धूल अवश्य घुसती है। और यदि अंदर की दीवार खिड़की या दरवाजे पर तेल लगा हो, वे चिकने हों तो धूल उस पर अच्छी तरह चिपक कर उनके साथ एकरूप हो जाती है। परन्तु दरवाजे बन्द किए गये हों तो धूल अन्दर प्रवेश नहीं कर सकती और न तेल के साथ एकरूप कने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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