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________________ अन्यत्वभावना का वर्णन ४६७ अब अन्यत्वभावना का स्वरूप बताते हैं यवाऽन्यत्वं शरीरस्य, वैसादृश्याच्छरोरिणः । धन-बन्धु-सहायानां, तत्राऽन्यात्वं न दुर्वचम् ।।७०। अर्थ-जहाँ आत्मा और शरीर आधार-आधेय, अरूपी-रूपी, चेतन-अचेतन !जड़), नित्य-अनित्य हैं ; तथा शरीर जन्मान्तर में साथ नहीं जाता है, जबकि आत्मा जन्मान्तर में भी साथ रहता है ; इससे शरीर और शरीरी :आत्मा) को भिन्नता-विसदृशता स्पष्ट प्रतीत होती है , तब फिर वहाँ यह कहना असत्य नहीं है कि धन, बन्धु, माता-पिता, मित्र, सेवक, पत्नी-पुत्र आवि तथाकथित सहायक (आत्मा से) भिन्न हैं। भावार्थ -जब आत्मा से शरीर को भिन्न स्वीकार कर लिया है तो धनादि पदार्थों को, (जो प्रायः शरीर से सम्बन्धित हैं) भिन्न मानने में कौन-सी आपत्ति हैं ? अन्यत्वभावना का फल सिर्फ निर्ममत्व है, इतना ही नहीं ; और भी फल है। उसे बताते हैं यो देह-धन-बन्धुभ्यो, भिन्नमात्मानमोक्षते । क्व शोकशंकुना तस्य, हन्तातङ्कः प्रतन्यते ॥७१॥ अर्थ-जो अपनी आस्मा को शरीर, धन, स्वजन, बन्धु आदि से भिन्नस्वरूप देखता है, उसका आत्मा वियोगजनित शोकरूपी कील से भला कैसे आतंकित-पीड़ित हो सकता है ? व्याख्या-इस विषय में प्रयुक्त आन्तरश्लोकों का भावार्थ दे रहे हैं-'अन्यत्व का अर्थ है भिन्नता । वह भिन्नता आत्मा और शरीर, धन, स्वजन आदि के बीच में स्पष्ट प्रतीत होती है। यहां शका होती है कि देहादि पदार्थ इन्द्रियो से जाने जा सकते हैं, जबकि आरमा तो अनुभव का विषय है, तब फिर इनका एकत्व हो ही कैसे सकता है ? इस प्रकार जब आत्मा और शरीर आदि पदार्थों का भिन्नत्व स्पष्ट है, तब शरीर पर प्रहार करने पर आत्मा को उसकी पीड़ा क्यों महसूम होती है ?" इसका समाधान यों है -जिस व्यक्ति को आत्मा और गरीरादि में भेदबुद्धि नहीं है ; जो इन दोनों को एक ही मानता है, उसके शरीर पर प्रहार करने से आत्मा को अवश्य पीड़ा होती है, लेकिन जिसने शरीर और आत्मा का भेद भलीभांति हृदयंगम कर लिया है, उसे अपने शरीर पर प्रहार होने पर भी आत्मा में पीड़ा नही होती । अन्तिम तीर्थकर परमात्मा श्री महावीर प्रमु पर १२ वर्ष तक बहुत उपसर्ग हुए ; संगमदेव ने उन पर कालचक्र फका था, ग्वाले ने उनके पैरों पर खीर पकाई थी; फिर भी देह को आत्मा से भिन्न अनुभव करने वाले प्रभु की आत्मा में दुःख न हुआ। देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञाता नमिराज था। जब उसकी मिथिला नगरी जल रही थी, तब देवेन्द्र ने उसमे कहा --- 'यह तुम्हारी मिथिला जल रही है।" तब नमिराज ने उत्तर दिया 'इसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। भेदविज्ञान कर लेने वाले आत्मा पर यदि पिता-मम्बन्धो दुःख आ पड़े तो भी वह दु:खी नहीं होता । जबकि नौकर पर दु:ख आ पड़े तो उस पर आत्मीयता-ममता होने से अपना मान लेने के कारण दुःख होता है। पुत्र भी 'अपना नहीं, पराया है। यह जान कर सेवक को स्वकीयरूप में स्वीकार करता है तब उस पर पुत्रादि से अधिक प्रीति होती है । राजभण्डारी पराये धन को अलग बांध कर रखता है, उसी तरह 'परपदार्य में ममत्त्व
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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