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________________ ४४६ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश आदि सब को अपने पक्ष में करके एकमत हो कर राजा को खूब शराब पिला कर मूच्छित कर दिया। बाद मे उसे बांध कर जंगल में छोड़ आए । जिह्वन्द्रिय के वश हो कर मुदामराजा अपने राज्य से, च्युत हुमा, परिवार और कुल से अलग हुआ और जंगल में पड़ा-पड़ा कुत्ते को तरह कराहता रहा । इन्द्रियाँ जिमके वश में नही, उसे चण्डप्रद्योत राजा की तरह बधन में डाल देती हैं। इन्द्रियों के वशवर्ती मनुष्य रावण के समान मौत के मेहमान बनते हैं। इसकी कथा पहले आ चुकी है। यहां इस विषय कुछ आन्तर श्लोक है, जिनका भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं... इ.न्द्रियों के विषयों में आसक्त हो कर कौनसा जीव विडम्बना नहीं पाता? और तो और शास्त्र के परमार्थ को जानने वाले शास्त्रार्थमहारथी गी बालकवत् चेष्टा करते हैं। बाहुबलि पर भरतवक्री ने चक्र-महास्त्र फैका था, फिर भी बाहुबलि की विजय हई और भरत की पराजय। यह मब इन्द्रियों का ही नाटक था ! वे तो उसी भव में मोक्ष जाने वाले थे फिर भी उन्होंने शस्त्रास्त्रों से सग्राम किया था ! वस्तुत: गृहस्थ तो दुरन्त इन्द्रियों से बार-बार दण्डित होते हैं। यह बात तो समझ में आती है; मग प्रणान्नमोही पूर्वधारी माधक इन्द्रियों से दण्डित होते हैं यह बात आश्चर्यजनक है। खेद है, देव, दानव और मानव इन्द्रियों से अधिक पराजित हए हैं। बेचारे कितने बड़े नपस्वी होते हए भी कृत्मित कार्य करने में पीछे नहीं रहते। इन्द्रियों के वशीभूत हो कर मनुष्य अभक्ष्यभक्षण कर जाते हैं; अपेय पदार्थ पी जाते हैं, अमेव्य का भी सेवन करते हैं। इन्द्रियाधीन लाचार बना हुआ मनुष्य अपने कुलशील का त्याग करवं. निलज्ज हा कर वेश्या के यहां नीच कार्य एवं गुलामी भी करता है। मोहान्ध पुरुष परद्रव्य और पपत्री में जो प्रवृत्ति करता है, उसे अस्वाधीन इन्द्रियो का नाटक समझना। जीवों के हाथ, पैर, इन्द्रियों और अगों को काट लिया जाता है, यहां तक कि उन्हें मार डाला जाता है, उन सबमें इन्द्रियों की गुलामी ही कारण है। इमलिए दूर से हो प्रणाम हो. ऐसी इन्द्रियों को ! जो दूसरों को विनय का उपदेश देते है. और स्वयं इन्द्रियों के आगे हार खा जाते हैं, उन्हें देख कर विवेकीपुरुप मुंह पर हाथ ढक कर हमने हैं । इम जगत में चींटी से ले कर इन्द्र तक जितने भी जीव हैं, इनमें केवल वीतराग को छोड़ कर मभी इन्द्रियों से पगजित होते हैं।" इस प्रकार सामान्य रूप से इन्द्रियों के दोग बनाए। अब स्पर्शन आदि प्रत्येक इन्द्रिय के, पृथक-पृथक दोष पांच श्लोकों मे बताते हैं वशात् स्पर्शसुखास्वाद-प्रसारितकरः करी। आलानबन्धनक्लेशमासादयति तत्क्षणात् ॥२८॥ पयस्यगाघे विचरन् गिलन् गलगलामिषम् । मैनिकस्य करे दोनो मोनः पतति निश्चितम् ॥२९॥ निपतन् मत्त-मातङ्ग-कपोले, गन्धलोलुपः । कर्णतालतलाघातात मृत्युमाप्नोति षट्पदः ॥३०॥ सम्बरकाश-शिखालोकविमोहितः । रभसेन पतन दीपे शलभो लभते मृतिम् ॥३१॥ हरिणो हरिणीं गोतिमाकर्णयितु: धुरः । अ ष्टचापत्य, याति व्याधस्य वेध्यताम् ॥३२॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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