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________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश २८ और जैसे वृष्टि पर्वत पर पानी बरसाती है, वैसे ही उन्होंने प्रभु का अभिषेक किया । पुष्पमाला, सुगन्धित अंगराग और देवों द्वारा स्थापित सुगन्धित पुष्पसमूह से प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अपने धवल यश से शोभायमान हो रहे हों । विविध वस्त्र पहन कर तथा रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित होकर प्रभु संध्यासमय के बादल से सुशोभित आकाश के समान या तारागण से प्रकाशमान आकाश के समान शोभायमान होने लगे । इन्द्र ने आकाश में दुन्दुभि बजाई, तो ऐसा मालूम होने लगा, मानो अपनी आत्मा में से उछलता हुआ आनन्द जगत् को बांट रहा हो। ऊर्ध्वगति का मागं जगत् को बतलाने के बहाने देवों, दानवों और मनुष्यों द्वारा उठाई गई शिविका में प्रभु का दीक्षा-निष्क्रमण - महोत्सव किया; जिसे निर्निमेष दृष्टि से देख कर दर्शको ने अपने नेत्रों को कृतार्थ किया । वहाँ से सिद्धार्थं नामक उद्यान में पहुंच कर प्रभु ने कपायों की सर्वथा त्याग करने चार मुष्टि से बालों का लोच किया, बाद में पाँचवी इन्द्र ने प्रार्थना की--"प्रभो ! आपके स्वर्णकान्तिमय अवर्णनीय केश की इन्हें ऐसे ही रहने दीजिए।" यह सुन कर भगवान् ने उन्हें वैसे ही रहने दी । सौधर्म इन्द्र ने अपने उत्तसंग वस्त्र में प्रभु के बालों को ग्रहण किए. और उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल कर वापिस आए । सभा में होने वाले कोलाहल को नाटकाचार्य की तरह इन्द्र ने मुष्टि एव चपत का इशारा करके बद कराया । "मैं यावज्जीवन सर्वसावद्य ( सदोप) प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ", यो बोल कर प्रभु मोक्ष - मार्ग में प्रयाण करने के लिये उत्तम चारित्ररूपी रथ पर आरूढ़ हुए। उस समय प्रभु को मन:पर्यायज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे वे सभी जीवों के मनोगत द्रव्यों को जान सकते थे। अपने स्वामी का अनुसरण करने वाले चार हजार राजाओं ने भी भक्तिभाव से इसी चारित्रपथ को अगीकार किया; क्योंकि कुलीन पुरुषों का यही आचार है। इसके बाद सभी इन्द्र अपने-अपने स्थान को लौट गए। जैसे यूथपति हाथियों को साथ लिये हुए चलता है, वैसे ही भगवान उन चार हजार मुनियों को साथ लिए हुए विचरण करने लगे । उस समय भद्रजन प्रभु को भिक्षा देने की विधि से अनभिज्ञ थे, इसलिए जब वे घरों में भिक्षा के लिए जाते तो भावुक नर-नारी मोती, रत्न, हाथी, घोड़े आदि वस्तु उनके समक्ष हाजिर करते थे । सच है, सरलता भी कभी तिरस्कार करने वाली बन जाती है।' भोले भावुक लोगों की मरलता एवं अनभिज्ञता के कारण प्रभु को अनुकूल भिक्षा न मिलने के कारण वे उन अकल्पनीय वस्तुओं का स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि वापिस लौट आते थे । प्रभु अदीनभाव मे मौन रह कर इस परिषह को सहन कर रहे थे । परन्तु प्रभु की मौनावलम्बन युक्त इस कठोर एवं असह्य चर्या को देख कर उनके साथ विचरण करने वाले उनके ४००० क्षुधापीड़ित साघु उन्हें छोड़ कर चले गये । वे सबके सब नापमवेष धारण करके वन्य फल-मूल वा कर अपना निर्वाह करने लगे । भगवान् जैसे सत्त्वशाली अन्य कौन हो सकते हैं ? इस प्रकार कष्टों से घबरा कर उन्होंने मोक्ष का राजमार्ग छोड़ कर उत्पथ पर पैर रख दिया था । तरह पुष्पों और आभूषणों का मुष्टि में लोच करने लगे, तब जुल्फें शोभा देती हैं, इसलिये इधर प्रभु की आज्ञा मे गये हुए कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि ध्यानस्थप्रभु के पास आये और दोनों ने प्रभु को नमस्कार करके उनसे प्रार्थना की- 'प्रभो ! हमारा स्वामी आपके मिवाय और कोई नहीं है; अतः आप हमें हमारा राज्य वापिस दीजिये ।' प्रभु के मौन होने से उन दोनों को कुछ भी जवाब नहीं दिया । निःम्पह, निर्ममत्व महापुरुष इस जगत् के प्रपंच से दूर ही रहते हैं। प्रभु को मौन देख कर दोनों उसी दिन से हाथ में नगी तलवार लिए स्वामी की सेवा में पहरेदार बन कर रहने लगे । वे ऐसे मालूम होते थे, जैसे मेरुपर्वन के इर्दगिर्द सूर्य और चन्द्रमा हों। उस समय प्रभू के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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