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________________ ४१८ योगशास्त्र: तृतीय प्रकाश हुए उसने पोषधशाला में प्रवेश किया और नम्रतापूर्वक हाथ जोड कर कामदेव से कहने लगा- "धन्य हो कामदेव, आपको! वास्तव में इन्द्र ने देवसभा में जब आपकी प्रशसा की, तब मै उसे सहन न कर सका। इसलिये मैं यहां आपना चलायमान करने के लिये आया था। क्योकि कभी-कभी स्वामी भी अपने स्वामित्व के अभिमान मे आ कर वास्तविकता से विपरीत तथ्य को गलतरूप में भा प्रस्तुत कर देते है। इस कारण मैंने विविध रूप बना कर तरह-तरह से आपकी कार परीक्षा ली थी। परन्तु मुझे कहना होगा कि इन्द्रमहाराज ने जमी आपकी प्रशसा की थी; वैसे ही आप धीर, वीर, नि:शंक एवं धर्म में दृढ़ है। परीक्षा पाने समय मैंने आपको बहुत परेशान किया। उसके लिए मैं अपने उन अपगधों की क्षमा चाहता है। इस प्रकार कामदेव से बारवार अनुनय-विनय करके देव अपने स्थान को वापिस चला गया । अखण्डवनी कामदेव ने भी आना कायोत्सर्ग पूर्ण किया। गुणों के प्रति महजभाव मे वात्सल्य से ओत-प्रोत श्रीवीरप्रभ ने अपने समवसरण (धमंमभा) में उपसगों को समभाव में मह कर व्रत में दृढ़ रहने वाले कामदेव थावक की प्रशमा की। दूसरे दिन श्रावक कामदेव त्रिभुवन-म्वामी श्रीवीरप्रभु के चरणकमलों में वदन करने आया, तब भगवान ने गौतम आदि मुनियों से इस प्रकार कहा-"आयुष्मान श्रमणो ! गृहस्थधर्म में भी कामदेव ने ऐमें ऐसे भयंकर उपसर्गों का ममभाव एवं निर्भयता मे मामना किया तो फिर माधुधमनत्यर सर्व-सग-परित्यागी तुम सरीखे त्यागियों को तो ऐसे उपमर्ग विशेपम्प से महन करने चाहिए ।' आने जीवन की ढलती उम्र में कामदेव श्रावक ने कर्मों को निर्मूल करने के उपायमत श्रावक की ग्यारह पतिमाओं की क्रमशः आराधना की । अन्तिम समय में संलेखना करके अनशनवत अगीकार पिया और उनम समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर वह अरुणाभ नामक विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाला देव बना । वहा से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेहक्षेत्र में जन्म ले कर मिद्धपद प्राप्त करेगा। जिस तरह कागदेव थावक ने उपसगं के सकटकालीन अवसर पर भी अपने व्रत-पालन में अडिग रह कर स्वाभाविक धंयं धारण किया था, जिसकी प्रशंसा तीर्थकर भगवान ने भी की थी, उसी तरह उत्तम आत्माओ को भी प्रतपालन मे धैर्यपूर्वक अडिग रहना चाहिए । यह था कामदेव का दृढ़र्धामष्ठ जीवन ! निद्रात्याग के याद धर्मात्मा श्रावक को इस प्रकार विचार करना चाहिए जिनी देवः, कृपा धर्मों, गुरवो यत्र साधवः । श्रावकत्वाय कस्तस्मै न श्लाघयेत् विमूढधी. ॥१३९ । अर्थ ---जिस श्रावकधर्म में रागादि शत्रुओं के आदर्श विजेता देव हैं ; पंचमहाव्रत में तत्पर धर्मोपदेशक संयमी साधु गुरु हैं ; दुखियों के दुःखों को दूर करने की अभिलाषारूप दयामय धर्म है, फिर कौन ऐसा मूढ़बुद्धि होगा, जो इस श्रावकत्व श्रावकधर्म) की सराहना नहीं करेगा ? अवश्य ही तारीफ करेगा। विशेपार्थ - मगर रागादि-युक्त देव श्रावक के लिए पूजनीय नहीं होते ; हिसामय यज्ञादिरूप धर्म, धर्म नहीं होता और आरम्भ-रिग्रह आदि में रचे-पचे माधु गुरु नही होतं । अब निद्रात्याग के बाद श्रावक के मनोरथरूप भावनाएं सात श्लोको में प्रस्तुत करते हैं जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भूवं चक्रवर्त्यपि । स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्माधिवासितः ॥१४०॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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