SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध गतियों की दुःखमय स्थिति एवं उपसर्गों में दृढ़ता का चिन्तन करे दुःस्थां भवस्थिति स्थेम्ना, सर्वजोवेषु चिन्तयन् । निसर्गसुखसर्ग तेष्वपवर्ग विमार्गयेत् ॥१३७॥ अर्थ-स्थिर हो कर, वह चिन्तन करे कि संसार-परिभ्रमण सभी जीवों के लिए अटपटा व दुःखमय है। अतः इस प्रकार का युक्तिपूर्वक विचार करे कि ससार के सभी जीव कैसे शाश्वत व स्वाभाविक मोक्षसुख प्राप्त कर? व्याख्या--सभी जीवों की भवस्थिति बड़ी दुसह व बेढब है। जीव कभी तियंचगति में, कभी नरकगति में कभी मनुष्यगति में और कभी देवगति में जाता है ; जहां उसे तरह-तरह की यातनाएं मिलती हैं । तियं चगति में वध-बन्धन, मार, पराधीनता, भूख, प्यास, अतिभार लादना, अगोंअवयवों का छेदन आदि दु.ख सहने पड़ते हैं। नरकगति में एक दूसरे के वैर-विरोध व क्लेश की उदीरणा (प्रेरणा) से परमाधामियों से और क्षेत्र के कारण नाना प्रकार की यातनाएं स्वाभाविक ही भोगनी पड़ती हैं। करीत से शरीर काटना, कुंभी में पकाना, खराब नोकदार काटों वाले शाल्मली वृक्ष से आलिंगन कराना, वैतरणी नदी में तैरना, इत्यादि महादुःख हैं। मनुष्यभव में भी दरिद्रता, व्याधि, रोग, पराधीनता, वध, बन्धन आदि कई दुःख हैं। देवगति में भी ईर्ष्या, विषाद, दूसरों की सम्पत्ति देख कर जलना, च्यवन (मरण). ६ महीनों का संताप इत्यादि दुःख हैं। इस प्रकार संसार-परिभ्रमण दुःखरूप है ; ऐसी दुःखद स्थिति पर चिन्तन करे कि संसार के सभी मोहमायालिप्त जीव जन्म-मरण आदि सभी दुःखों से मुक्त हो कर मोक्ष को कैसे प्राप्त करें ? जागने के बाद इस प्रकार चिन्तन करे संसर्गेऽपसगाणां दृढव्रतपरायणाः । धन्यास्ते कामदेवाधाः श्लाघ्यास्तीर्थकृतामपि ॥१३॥ अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यंच आदि के द्वारा कृत उपसगों का सम्पर्क हो जाने पर भी अपने व्रत के रक्षण और पालन में दृढ़ श्रीकामदेव आदि श्रावकों को धन्य है। जिनकी प्रशंसा तीर्थकर भगवान् महावीर ने भी की थी ; ऐसा चिन्तन करे। कामदेव श्रावक की सम्प्रदायपरम्परागत कथा इस प्रकार है उपसर्ग के समय व्रत में हड:कामदेव श्रावक गंगानदी के किनारे झुके हुए बांसों की कतार के समान मनोहर एवं चैत्य-ध्वजाओं से सुशोभित चम्पानाम की महानगरी थी। वहां पर सपं के शरीर के समान लम्बी भुजाओं वाला, लक्ष्मी के कुलगृहसदृश जितशत्रु राजा राज्य करता था। इसी नगरी में मार्ग पर स्थित विशाल छायादार वृक्ष के समान अनेक लोगों का आश्रयदाता एवं बुद्धिशाली कामदेव गृहस्थ रहता था। साक्षात् लक्ष्मी की तरह, रूप-लावण्य से सुशोभित उत्तम-आकृतिसम्पन्न भद्रा नाम की उसकी धर्मपत्नी थी। कामदेव के पास छह करोड़ स्वर्णमुद्राएं जमीन में गाड़ी हुई सुरक्षित थीं ; इतनी ही मुद्राएं व्यापार में लगी हई थीं, और इतना ही धन घर की साधन-सामग्री वगैरह में लगा हुआ था। उसके यहाँ ६ गोकुल थे, प्रत्येक में १० हजार गायों का परिवार था। ____ एक बार विभिन्न जनपदों में विचरण करते हुए भगवान महावीर वहां पधारे । वे नगरी के बाहर पृथ्वी के मुखमण्डन पूर्णभद्र नामक उबान में विराजे । कामदेव ने सुना तो वह भी प्रभु-चरणों में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy